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का० १०
युक्तयनुशासन
अर्थात् क्रिया-कारकादिरूप जो विविध अर्थ है उन्हे बालक तक भी स्वीकार करते है इसलिये वे सिद्ध है और उनका इस प्रकारसे सिद्ध होना ही स्वभाव है तो यह वादान्तर हुआ, परन्तु यह वादान्तर भी ( हे वीर भगवन् । ) आपके द्वेषियोके यहाँ बनता कहाँ है ?-क्योकि वह आबाल-सिद्धिसे होनेवाली निर्णीति नित्यादि सर्वथा एकान्तवादका आश्रय लेनेपर नहीं बन सकती, जिससे सब पदाथा सब कायो और सब कारणोकी सिद्धि होती। कारण यह कि वह निर्णीति अनित्य होती है और विना विक्रियाके बनती नही, इसलिये सर्वथानित्य एकान्तके साथ घटित नही हो सकती । प्रत्यक्षादि प्रमाणोसे किसी पदार्थकी सिद्धिके न हो सकने पर दूसरोके पूछने अथवा दूषणार्थ जिज्ञासा करनेपर स्वभाववादका अवलम्बन ले लेना युक्त नहीं है,क्योकि इससे अतिप्रसग आता है- प्रकृतसे अन्यत्र विपक्षमे भी यह घटित होता है । सर्वथा अनित्य अथवा क्षणिक एकान्तको सिद्ध करनेके लिये भी स्वभाव-एकान्तका अवलम्बन लिया जा सकता है। और यदि यह कहा जाय कि प्रत्यक्षादि प्रमागोकी सामर्थ्यसे विविधार्थकी सिद्धिरूप स्वभाव है तो फिर स्वभाव-एकान्तवाद कैसे सिद्ध हो सकता है ? , क्योकि स्वभावकी तो स्वभावसे ही व्यवस्थिति है, उसका प्रत्यक्षादि प्रमाणोके बलसे व्यवस्थापित करनेपर स्वभाव-एकान्त स्थिर नहीं रहता। इस तरह हे वीर जिन | आपके अनेकान्तशासनसे विरोध रखनेवाले सर्वथा एकान्तवादियोंके यहाँ कोई भी वादान्तर (एकके साथ दूसरा वाद ) बन नहीं सकता-वादान्तर ता सम्यक् एकान्तके रूपमे आपके मित्रो-सपक्षियो अथवा अनेकान्तवा देयोके यहाँ ही घटित होता है ।'
येषामवक्तव्यमिहाऽऽत्म-तत्त्व देहादनन्यत्व-पृथक्त्व-कलप्तेः । तेषां ज्ञ-नत्त्वेऽनवधार्यतत्त्वे का बन्ध-मोक्ष-स्थितिरप्रमेये ॥१०॥