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युक्तयनुशासन
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ता वह कैसे व्यवस्थित होता है ? नही होता। यदि किसी प्रमाणसे जाना जाता है तो वह धर्म-धर्मके स्वभाव - भावकी तरह बस्तु-धर्म अथवा भावान्तर हुआ । और यदि वह प्रभाव व्यपदेशको प्राप्त नही होता तो कैसे उसका प्रतिपादन किया जाता है ? उसका प्रतिपादन नही बनता । यदि व्यपदेशका प्राप्त होता है तो वह वस्तुधर्म अथवा वस्त्वन्तर ठहरा, अन्यथा उसका व्यपदेश नही बन सकता। इसी तरह वह भाव यदि वस्तु व्यवस्थाकाग नही तो उसकी कल्पनासे क्या नतीजा १ 'घटमें पटादिका अभाव है' इस प्रकार पटादिके परिहार द्वारा अभावको घट-व्यवस्थाका कारण परिकल्पित किया जाता है, अन्यथा वस्तु में सङ्कर दोषोका प्रसग आता है - एक वस्तुको अन्य वस्तुरूप भी कहा जा सकता है, जिससे वस्तुकी कोई व्यवस्था नहीं रहती - श्रतः श्रभाव वस्तु व्यवस्थाका श्रग है और इस लिये भावकी तरह वस्तुधर्म है | )
'जो अभाव तत्व (सर्वशून्यता ) वस्तु व्यवस्थाका अङ्ग नहीं है वह (भाव-एकान्तकी तरह) अमेय (प्रमेय) ही है- किसी भी प्रमाणके गोचर नहीं है ।'
(इस तरह दूसरोके द्वारा परिकल्पित वस्तुरूप या श्रवस्तुरूप सामान्य जिस प्रकार वाक्यका अर्थ नही बनता उसी प्रकार व्यक्तिमात्र परस्पर-निरपेक्ष उभयरूप सामान्य भी वाक्यका श्रर्थ नही बनता, क्योकि वह सामान्य अमेय है - सम्पूर्ण प्रमाणोंके विषयसे प्रतीत है अर्थात् किसी भी प्रमाणसे उसे जाना नहीं जा सकता | )
विशेष - सामान्य - विषक्त-भेदविधि-व्यवच्छेद- विधायि-वाक्यम् । भेद-बुद्ध रविशिष्टता स्याद् व्यावृत्ति बुद्धश्व विशिष्टता ते ॥ ६०॥ 'वाक्य (वस्तुतः ) विशेष (विसदृश परिणाम) और सामान्य