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का० १४
युक्तयनुशासन
उदय-क्षण नही है, दोनोमे अनेकक्षणरूप मुहूर्तादि कालका व्यवधान है,
और इसलिये जा त चित्तको प्रबुद्ध चित्तका हेतु नहीं कहा जा सकता। अत. उक्त सदोष युक्तिके आधारपर आकस्मिक कार्योत्पत्तिके दोषसे नही बचा जा सकता।
कृत-प्रणाशाऽकृत-कर्मभोगौ । स्यातामसञ्चेतित-कर्म च स्यात् ।
आकस्मिकेऽर्थे प्रलय-स्वभावे मार्गो न युक्तो वधकश्च न स्यात् ॥१४॥ 'यदि पदार्थको प्रलय स्वभावरूप आकस्मिक माना जाययह कहा जाय कि जिस प्रकार बौद्ध-मान्यतानुसार बिना किसी दूसरे कारणके ही प्रलय (विनाश ) आकस्मिक होता है, पदार्थ प्रलय-स्वभावरूप हैं, उसी प्रकार कार्यका उत्पाद भी बिना कारण के ही आकस्मिक होता है तो इससे कृत-कमके भोगका प्रणाश ठहरेगा-पूर्व चित्तने जो शुभ अथवा अशुभ कर्म किया उसके फलका भोगी वह न रहेगा और इससे किये हुए कर्मको करने वालेके लिये निष्फल कहना होगा-और अकृतकर्मके फलको भोगनेका प्रसङ्ग आएगा- जिस उत्तरभावी चित्तने कर्म किया ही नहीं उसे अपने पूर्वचित्त द्वारा किये हुए कर्मका फल भोगना पडेगा-3 क्योकि क्षणिकात्मवादमे कोई भी कर्मका कर्ता चित्त उत्तर-क्षणमे अवस्थित नहीं रहता किन्तु फलकी परम्परा चलती है। साथ ही, कर्म भी असचेतित-अविचारित ठहरेगा-क्योकि जिस चित्तने कर्म करनेका विचार किया उसका उसी क्षण निरन्वय विनाश हो जानेसे और विचार न करनेवाले उत्तरवर्ती चित्तके द्वारा उसके सम्पन्न होनेसे उसे उत्तरवर्ती चित्तका अविचारित कार्य ही कहना होगा।' ___(इसी तरह ) पदार्थके प्रलय-स्वभावरूप क्षणिक होनेपर कोई मागे भी युक्त नहीं रहेगा-सकल प्रास्त्रव-निरोधरूप मोक्षका अथवा