________________
समन्तभद्र-भारती
का० ३५ wwwwwwmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm सम्बन्धकी प्राप्ति) है। क्रम-अक्रमकी निवृत्ति क्रियाको निवृत्त करती है, क्योकि क्रियाके साथ उनकी व्याप्ति है। क्रियाका अभाव होने पर कोई की नही बनता, क्योकि क्रियाधिष्ठ स्वतत्र द्रव्यके ही कर्तृत्वकी सिद्धि होती है। और कर्ताके अभावमे कार्य नही बन सकता-स्वय समीहित स्वर्गाऽपपर्गादिरूप किमी भी कार्यकी सिद्धि नही हो सकती। (अत.) हे वीर जिन । आपके द्वषियोंका-आपके अनेकान्तात्मक स्याद्वादशासनसे द्वेष रखनेवाले (बौद्ध, वैशेषिक, नैय्यायिक, साख्य आदि) सर्वथा एकान्तवादियोंका-यह श्रम-स्वर्गाऽपवर्गादिकी प्राप्तिके लिये किया गया यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, ध्यान, धारणा, समाधि अादिरूप सपूर्ण दृश्यमान तपोलक्षण प्रयास-व्यर्थ है-उससे सिद्धान्ततः कुछ भी साध्यकी सिद्धि नही बन सकती।'
[यहा तकके इस सब कथन-द्वारा प्राचार्य महोदय स्वामी समन्तभद्रने अन्य सब प्रधान प्रधान मतोको सदोष सिद्ध करके 'समन्तदाष मतमन्यदी यम्' इस आठवी कारिकागत अपने वाक्यको समर्थित किया है, साथ ही, 'त्वदीय मतमद्वितीयम्' (श्रापका मत-शासन-अद्वितीय है) इस छठी कारिकागत अपने मन्तव्यको प्रकाशित किया है । और इन दोनोके द्वारा 'त्वमेव महान् इतीयत्प्रतिवक्तुमीशाः वयम्' ('आप ही महान है! इतना बतलानेके लिये हम समर्थ हैं) इस चतुर्थ कारिकागत अपनी प्रतिज्ञाको सिद्ध किया है।]
मद्याङ्गवद्भत समागमे ज्ञः शक्त्यन्तर-व्यक्तिरदैव-सृष्टिः। इत्यात्म-शिश्नोदर-पुष्टि-तुष्ट -
निह.भयो ! मृदवः प्रलब्धाः ॥३॥ 'जिस प्रकार मद्यागोंके-मद्यके अगभूत पिष्ठोदक, गुड, धातकी श्रादिके-समागम (समुदाय) पर मदशक्तिकी उत्पत्ति अथवा आवि