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का०६२ युक्तयनुशासन
५३ सुव्यवस्थित है, उसमें असगतता अथवा विरोधके लिये कोई अवकाश नहीं है। जो शासन-वाक्य धर्मोंमे पारस्परिक अपेक्षाका प्रतिपादन नहीं करता-उन्हें सर्वथा निरपेक्ष बतलाता है-वह सर्वधर्मोंसे शून्य हैउसमें किसी भी धर्मका अस्तित्व नहीं बन सकता और न उसके द्वारा पदार्थव्यवस्था ही ठीक बैठ सकती है। अत आपका ही यह शासनतीर्थ सर्व-दु खोंका अन्त करनेवाला है, यही निरन्त है-किसी भी मिथ्यादर्शनके द्वारा खडनीय नही है और यही सब प्राणियोंके अभ्युदयका कारण तथा आत्माके पूर्ण अभ्युदय (विकास) का साधक ऐसा सर्वोदय-तीर्थ है।
भावार्थ-आपका शासन अनेकान्तके प्रभावसे सकल दुर्नयो (परस्परनिरपेक्ष नयो) अथवा मिथ्यादर्शनोंका अन्त (निरसन) करनेवाला है और ये दुर्नय अथवा सर्वथा एकान्तवादरूप मिथ्यादर्शन ही ससारमें अनेक शारीरिक तथा मानसिक दुःखरूप आपदाओके कारण होते हैं, इसलिये इन दुर्नयरूप मिथ्यादशनोका अन्त करनेवाला हानेसे अापका शासन समस्त आपदाओका अन्त करनेवाला है, अर्थात् जो लोग आपके शासनतीर्थका आश्रय लेते हैं-उसे पूर्णतया अपनाते हैं उनके मिथ्यादर्शनादि दूर होकर समस्त दुःख मिट जाते हैं । और वे अपना पूर्ण अभ्युदय-उत्कर्ष एब विकास-सिद्ध करनेमें समर्थ हो जाते हैं ।
कामं द्विषन्नप्युपपत्तिचक्षुः समीक्ष्यतां ते समदृष्टिरिष्टम् । त्वयि ध्रुवं खण्डित-मान-शृङ्गो
भवत्यभद्रोऽपि समन्तभद्रः ॥६२।। (हे वीर जिन 1) आपके इष्ट-शासनसे यथेष्ट अथवा भरपेट द्वेष रखनेवाला मनुष्य भी, यदि समदृष्टि (मध्यस्थवृत्ति) हुआ, उपपत्ति-चक्षुसे-मात्सर्यके त्यागपूर्वक युक्तिसङ्गत समाधानकी दृष्टिसे--