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समन्तभद्र-भारती
का०५६
'(यदि यह कहा जाय कि 'साधनके विना साध्यकी स्वय सिद्धि नहीं होती' इस वाक्यके अनुसार सवेदनाद्वैतकी भी सिद्धि नही होती तो मत हो, परन्तु शून्यतारून सर्वका अभाव तो विचारबलसे प्राप्त हो जाता है, उसका परिहार नही किया जा सकता अत. उसे हो मानना चाहिये तो यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योकि ) हे वीर अहन | आपके मतमें अभाव भी वस्तुधर्म होता है बाह्य तथा आभ्यन्तर वस्तुके असम्भव होनेपर सर्वशु यतारूर तदभाव सम्भव नहीं हो सकता, क्योकि स्वधर्मीके असम्भव होनेपर किसी भी धर्म की प्रतीति नहीं बन सकती। अभावधर्मकी जब प्रतीति है तो उसका काई वर्मों (बाह्य-आभ्यन्तर पदार्थ) होना ही चाहिये, और इस लिये सर्वशून्यता घटित नही हो सकती। सर्व ही नही तो सर्व-शून्यता कैसी १ तत् ही नही तो तदभाव कैसा १ अथवा भाव ही नहीं तो अ-भाव किसका १ इसके सिवाय, यदि वह अभाव स्वरूपसे है तो उसके वस्तुधर्मत्वकी सिद्धि है, क्योकि स्वरूपका नाम ही वस्तुधर्म है। अनेक धमोमेसे किसी धर्मके अभाव होनेपर वह अभाव धर्मान्तर ही होता है और जो धर्मान्तर होता है वह कैसे वस्तुधर्म सिद्ध नहीं हाता १ होता ही है । यदि वह अभाव स्वरूपसे नही है तो वह अभाव ही नहीं है, क्योकि अभावका अभाव हानेर भावका विधान होता है । और यदि वह अभाव (धर्मका अभाव न होकर) धर्मीका अभाव है तो वह भावकी तरह भावान्तर होता है जैसे कि कुम्भका जो अभाव है वह भूभाग है और वह भावान्तर ( दूसरा पदार्थ) ही है, योगमतकी मान्यताके अनुसार सकल-शक्तिविरहरूप तुच्छ नही है । साराश यह कि अभाव यदि धर्मका है तो वह धर्मकी तरह धर्मान्तर होनेसे वस्तुधर्म है और यदि वह धर्मीका है तो वह भावकी तरह भावान्तर (दूसरा धमी) होनेसे स्वय दूसरी वस्तु है-उसे सकलशक्ति-शून्य तुच्छ नहीं कह सकते। और इस सबका कारण यह है कि अभावको प्रमाणसे जाना जाता है, व्यपदिष्ट किया जाता है और वस्तु-व्यवस्थाके अङ्गरूपमें निर्दिष्ट किया जाता है। (यदि धर्म अथवा धींके अभावको किसी प्रमाणसे नहीं जाना जाता