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का०५६
युक्यनुशासन
___ 'और यदि साधनके विना स्वतः ही संवेदना तरूप साध्यकी सिद्धि मानी जाय तो वह युक्त नही है क्योकि तब पुरुषाद्वतकी भी स्वय सिद्धिका प्रसग आता है, उसमे किसी भी बौद्धको विप्रतिपचि नहीं हो सकती।'
निशायितस्तैः परशुः परघ्नः. स्वमूर्ध्नि निर्भेद-भयाऽनभिज्ञः। वैतण्डिकैयः कुसृतिः प्रणीता
मुने ! भवच्छासन-हक-प्रमूढः ॥८॥ (इस तरह) हे वीर भगवन् । जिन वैतण्डिकोंने-परपक्षके दूषण को प्रधानता अथवा एकमात्र धुनको लिए हुए सवेदनाद्वैतवादियोनेकुसृतिका-कुत्सिता गति-प्रतीतिका-प्रणयन किया है उन आपके (स्याद्वाद) शासनकी दृष्टिसे प्रमूढ एव निर्भेदके भयसे अनभिज्ञ जनोंने (दर्शनमोहके उदयसे आक्रान्त होनेके कारण) परघातक परशुकुल्हाड़ेको अपने ही मस्तकपर मारा है ।। अर्थात् जिस प्रकार दूसरेके घातके लिये उठाया हुआ कुल्हाड़ा यदि अपने ही मस्तकपर पड़ता है तो अपने मस्तकका विदारण करता है और उसको उठाकर चलानेवाले अपने घातके भयसे अनभिज्ञ कहलाते हैं उसी प्रकार परपक्षका निराकरण करने वाले वैतण्डिकोंके द्वारा दर्शनमोहके उदयसे आक्रान्त होनेके कारण जिस न्यायका प्रणयन किया गया है वह अपने पक्षका भी निराकरण करता है और इसलिये उन्हे भी स्वपक्षघातके भयसे अनभिज्ञ एव दृकप्रमूढ समझना चाहिये।
भवत्यभावोऽपि च वस्तुधर्मो भावान्तरं भाववदहतस्ते। प्रमीयते च व्यपदिश्यते च वस्तु-व्यवस्थाऽङ्गममेयमन्यत् ॥५६॥