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समन्तभद्र-भारतो
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यह कहा जाय कि उसमे खरविषाणकी तरह अन्यत्व-अनन्यत्वादिके विकल्प ही नही बनते और इसलिए विकल्प उठाकर जो दोष दिये गये है उनके लिए अवकाश नही रहता-तो उस अवस्तुरूप सामान्यके अमेय होनेपर प्रमाणकी प्रवृत्ति कहाँ होती है ? अमेय होनेसे वह सामान्य प्रत्यक्षादि किसी भी प्रमाणका विषय नही रहता और इसलिए उसकी कोई व्यवस्था नहीं बन सकती।'
(इस तरह दूसरोके यहाँ प्रमाणाभावके कारण किसी भी सामान्यकी व्यवस्था नहीं बन सकती।)
ब्यावृत्ति-हीनाऽन्वयतो न सिद्धयेद् विपर्ययेऽप्यद्वितयेऽपि साध्यम् । अतव्युदासाऽभिनिवेश-वादः
पराऽभ्युपेताऽर्थ-विरोध-वादः ॥५६।। 'यदि साध्यको-सत्तारूप परसामान्य अथवा द्रव्यत्वादिरूप अपर सामान्यका-व्यावृत्तिहीन अन्वयसे-असत्की अथवा अद्रव्यत्वादिकी व्यावृत्ति (जुदायगी) के विना केवल सत्तादिरूप अन्वय-हेतुसेसिद्ध माना जाय तो वह सिद्ध नही होता-क्योकि विपक्षकी व्यावृत्तिके विना सत्-असत् अथवा द्रव्यत्व अद्रव्यत्वादिरूप साधनोके सकरसे सिद्धिका प्रसग आता है और यह कहना नहीं बन सकता कि जो सदादि. रूप अनुवृत्ति (अन्वय ) है वही असदादिकी व्यावृत्ति है, क्योकि अनुवृत्ति (अन्वय ) भाव-स्वभावरूप और व्यावृत्ति अभाव-स्वभावरूप है और दोनोमे भेद माना गया है । यह भी नहीं कहा जा सकता कि सदादिके अन्वयपर असदादिककी व्यावृत्ति सामर्थ्य से ही हो जाती है, क्योकि तब यह कहना नही बनता कि 'व्यावृत्तिहीन अन्वयसे उस साध्यकी सिद्धि होती है-सामर्थ्य से असदादिककी व्यावृत्तिको सिद्ध माननेपर तो यही कहना होगा कि वह अन्वयरूप हेतु असदादिकी व्यावृत्तिसहित है, उसीसे सत्सा