Book Title: Yuktyanushasan
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 134
________________ ७४ समन्तभद्र-भारती का०५५ सिद्धि हो सके । सर्वत्र सस्प्रत्यय- हेतुत्वकी सिद्धि न होनेपर अनन्त समाश्रयी सामान्यका उक्त अनुमान प्रमाण नहीं हो सकता । और इसलिये यह सिद्ध हुश्रा कि कृत्स्नविकल्पी सामान्यकी द्रव्यादिकोमें वृत्ति सामान्यबहुत्वका प्रसङ्ग उपस्थित होनेके कारण नही बन सकती । यदि सामान्यकी अनन्त स्वाश्रयोंमे देशतः युगपत् वृत्ति मानी जाय तो वह भी इसीसे दूषित होजाता है, क्योकि उसका ग्राहक भी कोई प्रमाण नही है। साथ ही सामान्यके सप्रदेशत्वका प्रसङ्ग श्राता है, जिसे अपने उस सिद्धान्तका विरोध होनेसे जिसमे सामान्यको निरश माना गया है, स्वीकार नही किया जा सकता । और इसलिये अमेयरूप एक सामान्य किसी भी प्रमाणसे सिद्ध न होने. के कारण अप्रमेय ही है-अप्रामाणिक है।' नाना-सदेकात्म-समाश्रयं चेद्अन्यत्वमद्विष्ठमनात्मनोः क । विकल्प-शून्यत्वमवस्तुनश्चेत तस्मिन्नमेये व खलु प्रमाणम् ॥५॥ 'नाना सतों-सत्पदार्थोंका-विविध द्रव्य-गुण-कर्मोंका-एक आत्माएक स्वभावरूप व्यक्तित्व, जैसे सदात्मा, द्रव्यात्मा, गुणास्मा अथवा कर्मास्मा–ही जिसका समाश्रय है ऐसा सामान्य यदि (सामान्य-वादियोके द्वारा ) माना जाय और उसे ही प्रमाणका विषय बतलाया जायअर्थात् यह कहा जाय कि सत्तासामान्यका समाश्रय एक सदात्मा, द्रव्यत्वसामान्यका समाश्रय एक द्रव्यात्मा, गुणत्वसामान्यका समाश्रय एक गुणात्मा अथवा कर्मत्व-सामान्यका समाश्रय एक कर्मात्मा जो अपनी क सद्व्यक्ति, द्रव्यव्यक्ति, गुणव्यक्ति अथवा कर्मव्यक्तिके प्रतिभासकालमें प्रमाणसे प्रतीत होता है वही उससे भिन्न द्वितीयादि व्यक्तियों के प्रतिभास-कालमें भी अभिव्यकताको प्राप्त होता है और जिससे उसके एक सत् अथवा एक व्यादिस्वभावकी प्रतीति होती है, इतने मात्र प्राश्रयरूप सामान्यके ग्रहणका निमित्त

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