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का०४६
युक्तयनुशासन
( इस तरह तो यह फलित हुश्रा कि एक ही वस्तु नाना-स्वभावको प्राप्त है जो कि विरुद्ध है । तब उसकी सिद्धि कैसे होती है ? इसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है-)
नानात्मतामप्रजहत्तदेकमेकात्मतामप्रजहच्च नाना। . अङ्गाङ्गि-भावात्तव वस्तु तयत्
क्रमेण वाग्वाच्यमनन्तरूपम् ॥४६॥ '( हे वीर जिन ! ) आपके शासनमे जो (जीवादि ) वस्तु एक है ( सत्वरूप एकत्व-प्रत्यभिज्ञानका विषय हानेसे ) वह ( समीचीन नाना ज्ञानका विषय होनेसे) नानात्मता ( अनेकरूपता ) का त्याग न करती हुई ही वस्तुतत्त्वको प्राप्त होती है जो नानात्मताका त्याग करती है वह वस्तु ही नही, जैसे दूसरोके द्वारा परिकल्पित ब्रह्माद्वैत श्रादि । ( इसी तरह) जो वस्तु (अबाधित नानाज्ञानका विषय होनेसे ) नानात्मक प्रसिद्ध है वह एकात्मताको न छोड़ती हुई ही आपके मतमें वस्तुत्वरूपसे अभिमत है-अन्यथा उसके वस्तुत्व नही बनता, जैसे कि दूसरोके द्वारा अभिमत निरन्वय नानाक्षणरूप वस्तु । अतः जीवादिपदार्थसमूह परस्पर एक दूसरेका त्याग न करनेसे एक-अनेक-स्वभावरूप है, क्योकि वस्तुत्वकी अन्यथा उपपत्ति बनती ही नहीं यह युच्यनुशासन है। ____(इस प्रकारकी वस्तु वचनके द्वारा कैसे कही जा सकती है ? ऐसी शङ्का नही करनी चाहिए, क्योकि ) वस्तु जो अनन्तरूप है वह अङ्गअगीभावके कारण-गुण-मुख्यकी विवक्षाको लेकर-क्रमसे वचनगोचर है-युगपत् नहीं, युगपत् (एक साथ ) एक रूपसे और अनेकरूपसे वस्तु वचनके द्वारा कही ही नहीं जाती, क्योंकि वैसी वाणीका असभव है-वचनमें वैसी शक्ति ही नही है । और इस तरह क्रमसे प्रवर्तमान वचन वस्तुरूप-सत्य होता है उसके असत्यत्वका प्रसङ्ग नहीं