________________
समन्तभद्र-भारती
का०५१
निर्णयके हेतु हैं-अन्यथा नहीं । इस प्रकार प्रत्यक्ष और श्रागमसे अविरोधरूप जो अर्थका प्ररूपण सतरूप है वह सब प्रतिक्षण ध्रौव्योत्पादव्ययात्मक है, अन्यथा सत्पना बनता ही नहीं । इस प्रकार युक्त्यनुशासनको उदाहृत जानना चाहिये ।'
एकान्त-धर्माऽभिनिवेश-मूला रागादयोऽहंकृतिजा जनानाम् । एकान्त-हानाच्च स यत्तदेव
स्वाभाविकत्वाच्च समं मनस्ते ॥५॥ '(जिन लोगोका ऐसा खयाल है कि जीवादिवस्तुका अनेकान्तात्मकरूपसे निश्चय होनेपर स्वात्माकी तरह परात्मामें भी राग होता है-दोनोमे कथचित् अभेदके कारण, तथा परात्माकी तरह स्वात्मामे भी द्वेष होता है-दोनोमे कथचित् भेदके कारण, और राग-द्वेषके कार्य ईर्ष्या, असूया, मद, मायादिक दोष प्रवृत्त होते हैं, जो कि ससारके कारण हैं, सकल विक्षोभके निमित्तभूत है तथा स्वर्गाऽपवर्गके प्रतिबन्धक है । और वे दोष प्रवृत्त होकर मनके समत्वका निराकरण करते हैं-उसे अपनी स्वाभाविक स्थितिमे स्थित न रहने देकर विषम-स्थितिमें पटक देते है-, मनके समत्वका निराकरण समाधिको रोकता है, जिससे समाधि हेतुक निर्वाण किसीके नहीं बन सकता । और इसलिये जिनका यह कहना है कि मोक्षके कारण समाधिरूप मनके समत्वकी इच्छा रखनेवाले को चाहिये कि वह जीवादि वस्तुको अनेकान्तात्मक न माने वह भी ठीक नहीं है, क्योकि)वे राग द्वेषादिक-जो मनकी समताका निराकरण करते हैं-एकान्तधर्माभिनिवेशमूलक होते हैं-एकान्त-रूपसे निश्चय किये हुए (नित्यत्वादि) धर्ममे अभि निवेश-मिथ्याश्रद्धान' उनका मूलकारण होता है-और (मोही-मिथ्यादृष्टि)
१. चुकि प्रमाणसे अनेकान्तात्मक वस्तुका ही निश्चय होता है और सम्यक नयसे प्रतिपक्षकी अपेक्षा रखनेवाले एकान्तका व्यवस्थापन होता है अतः एकान्ताभिनिवेशका नाम मिथ्यादर्शन या मिथ्याश्रद्धान है, यह प्रायः निीत है।