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समन्तभद्र-भारती
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आता, क्योकि उसकी अपने नानात्व और एकत्वविषयमें अङ्ग-अङ्गीभावसे प्रवृत्ति होती है। जैसे 'स्यादेकमेव वस्तु' इस वचनके द्वारा प्रधानभावसे एकत्व वाच्य है और गौणरूपसे अनेकत्व, स्यादनेकमेव वस्तु' इस वचनके द्वारा प्रधानभावसे अनेकत्व और गौणरूपसे एकत्व वाच्य है। इस तरह एकत्व और अनेकत्वके वचनके कैसे असत्यता होसकती है १ नही होसकती है । प्रत्युत इसके, सर्वथा एकत्वके वचन द्वारा अनेकत्वका निराकरण होता है और अनेकत्वका निराकरण होनेपर उसके अविनाभावी एकत्वके भी निराकरणका प्रसङ्ग उपस्थित होनेसे असत्यत्वकी परिप्राप्ति अभीष्ट ठहरती है, क्योकि वैसी उपलब्धि नहीं है । और सर्वथा अनेकत्वके वचनद्वारा एकत्वका निराकरण होता है और एकत्वका निराकरण होनेपर उसके अविनाभावी अनेकत्वके भी निराकरणका प्रसग उपस्थित होनेसे सत्यत्वका विरोध होता है। और इसलिये अनन्त धर्मरूप जो वस्तु है उसे अग-अंगी (अप्रधान-प्रधान) भावके कारण क्रमसे वाग्वाच्य (वचनगोचर ) समझना चाहिये।
मिथोऽनपेक्षाः पुरुषार्थ-हेतुनाँशा न चांशी पृथगस्ति तेभ्यः। परस्परेक्षाः पुरुषार्थ-हेतु
दृष्टा नयास्तद्वदसि-क्रियायाम् ॥५०॥
(वस्तुको अनन्तधर्मविशिष्ट मानकर यदि यह कहा जाय कि वे धर्म परस्पर-निरपेक्ष ही हैं और धर्मी उनसे पृथक् ही है तो यह कथन ठीक नहीं है, क्योंकि ) जो अंश-धर्म अथवा वस्तुके अवयव-परस्परनिरक्षेप हैं वे पुरुषार्थ के हेतु नहीं हो सकते, क्योकि उस रूपमें उपलभ्यमान नहीं हैं।-जो जिस रूपमें उपलभ्यमान नहीं वह उस रूपमे व्यवस्थित मी नहीं होता, जैसे अग्नि शीतताके साथ उपलभ्यमान नही है तो वह शीततारूपमें व्यवस्थित भी नहीं होती। परस्परनिरपेक्ष सत्वादिक धर्म