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का०४८
युक्तयनुशासन mmmmmmmmmm हेतु है और जो पर्यायकी प्रतीतिका निमित्त है वे दोनो यदि परस्परमें भिन्नास्मा हैं तो कैसे तदात्मक एक तत्त्व व्यवस्थित होता है ? नही होता, क्योंकि अभिन्नका भिन्नात्माप्रोके साथ एकत्वका विरोध है । जब वे दोनो आत्माएँ एकसे अभिन्न हैं तब भी एक ही अवस्थित होता है, क्योकि सर्वथा एकसे अभिन्न उन दोनोके एकत्वकी सिद्धि होती है, न कि द्वयात्म्य (द्वयात्मकता) की, जो कि एकल्प के विरुद्ध है। कौन ऐसा अमूढ (समझदार) है जो प्रमाणको अङ्गीकार करता हुआ सर्वथा एक वस्तु के दो भिन्न प्रात्माअोकी अर्पणा--विवक्षा करे ?--मूढके सिवाय दूसरा कोई भी नही कर सकता । अत. द्वयात्मक तत्त्व सर्वथा एकार्पणाके--एक तत्त्वकी मान्यताके--साथ विरुद्ध ही है, ऐसा मानना चाहिये। ___(किन्तु हे वीर जिन 1) आपके मतमें-स्याद्वादशासनमे-ये धर्मी (द्रव्य) और धर्म (पर्याय) दोनों असर्वथारूपसे तीन प्रकार-भिन्न, अभिन्न तथा भिन्नाऽभिन्न-माने गये हैं और (इसलिये) सर्वथा विरुद्ध नहीं हैं। क्योकि सर्वथारूपसे तीन प्रकार माने जानेपर भी ये प्रत्यक्षादि प्रमाणोसे विरुद्ध ठहरते हैं और विरुद्धरूपमें आपको अभिमत नहीं हैं। अत. स्यात्पदात्मक वाक्य न तो धर्ममात्रका प्रतिपादन करता है, न धर्मीमात्रका, न धर्म-धर्मी दोनोको सर्वथा अभिन्न प्रतिपादन करता है, न सर्वथा भिन्न और न सर्वथा भिन्नाऽभिन्न । क्योकि ये सब प्रतीतिके विरुद्ध है। और इससे द्रव्य-एकान्तकी, पर्याय-एकान्तकी तथा परस्परनिरपेक्ष पृथग्भूत द्रव्य-पर्याय. एकान्तको व्यवस्थाके न बन सकने का समर्थन होता है । द्रव्यादिके सर्वथा एकान्तमें युक्त्यनुशासन घटित नही होता।'
दृष्टाऽऽगमाभ्यामविरुद्धमर्थप्ररूपणं युक्त्यनुशासनं ते । प्रतिक्षणं स्थित्युदय-व्ययात्मतत्त्व-व्यवस्थं सदिहाऽर्थरूपम् ॥४॥