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समन्तभद्र-भारती
का०४२
अनुक्त-तुल्यं यदनेवकारं व्यावृत्यभावानियम-द्वयेऽपि । पर्याय-भावेऽन्यतरप्रयोग
स्तत्सर्वमन्यच्युतमात्म-हीनम् ॥४२॥ 'जो पद एवकारसे रहित है वह अनुक्ततुल्य है-न कहे हुएके समान है क्योंकि उससे (कतृ-क्रिया विषयक ) नियम-द्वयके इष्ट होनेपर भी व्यावृत्तिका अभाव होता है-निश्चयपूर्वक कोई एक बात न कहे जानेसे प्रतिपक्षकी निवृत्ति नहीं बन सकती-तथा (व्यावृत्तिका अभाव होने अथवा प्रतिपक्षकी निवृत्ति न हो सकनेसे) पदोंमें परस्पर पर्यायभाव ठहरता है, पर्यायभावके होनेपर परस्पर प्रतियोगी पदोंमेसे भी चाहे जिस पदका कोई प्रयोग कर सकता है और चाहे जिस पदका प्रयोग होनेपर संपूर्ण अभिधेयभूत वस्तुजात अन्यसे च्युत-प्रतियोगीसे रहित- होजाता है और जो प्रतियोगीसे रहित होता है वह आत्महीन होता है-अपने स्वरूपका प्रतिष्ठापक नही हो सकता। इस तरह भी पदार्थकी हानि ठहरती है।"
व्याख्या-उदाहरणके तौरपर 'अस्ति जीव.' इस वाक्यमे 'अस्ति' और 'जीव.' ये दोनो पद एवकारसे रहित है । 'अस्ति' पदके साथ अवधारणार्थक 'एव' शब्दके न होनेसे नास्तित्वका व्यवच्छेद नही बनता और नास्तित्वका व्यवच्छेद न बन सकनेसे 'अस्ति' पदके द्वारा नास्तित्वका भी प्रतिपादन होता है, और इस लिये 'अस्ति' पदके प्रयोगमे कोई विशेषता न रहनेसे वह अनुक्ततुल्य होजाता है। इसी तरह 'जीव' पदके साथ 'एव' शब्दका प्रयोग न होनेसे अजीवत्वका व्यवच्छेद नही बनता और अजीवत्वका व्यवच्छेद न बन सकनेसे 'जीव' पदके द्वारा अजीवत्वका भी प्रतिपादन होता है, और इस लिये 'जीव' पदके प्रयोगमें कोई विशेषता न रहनेसे वह अनुक्ततुल्य होजाता है। और इस तरह 'अस्ति' पदके द्वारा