Book Title: Yuktyanushasan
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 120
________________ समन्तभद्र भारतो का० ४६ A 'विधि, निषेध और अनभिलाप्यता- स्यादस्त्येव, स्यान्नास्त्येव, स्वादवक्तव्यमेव-ये एक-एक करके ( पदके ) तीन मूल विकल्प हैं । इनके विपक्षभूत धर्मकी सधि-सयोजनारूपसे द्विसयोगज विकल्प तीन - स्यादस्ति - नास्त्येव, स्यादस्त्यवक्तव्यमेव, स्यान्नास्त्यवक्तव्यमेवहोते है और त्रिसंयोगज विकल्प एक - स्यादस्ति नास्त्यवक्तव्यमेव— ही होता है । इस तरह से ये सात विकल्प हे वीर जिन | सम्पूर्ण अर्थभेद - शेष जीवादितत्त्वार्थ- पर्यायोमे, न कि किसी एक पर्यायमे - आपके यहाँ ( आपके शासन मे ) घटित होते है, दूसरो के यहाँ नही—क्योकि “प्रतिपर्याय सप्तभङ्गी" यह आपके शासनका वचन है, दूसरे सर्वथा एकान्तवादियो के शासन मे वह बनता ही नही। और ये सब विकल्प 'स्यात्' शब्द के द्वारा नेय हैं—नेतृत्वको प्राप्त है - अर्थात् एक विकल्प के साथ स्यात् शब्दका प्रयोग होनेसे शेष छहो विकल्प उसके द्वारा गृहीत होते हैं, उनके पुन प्रयोगकी जरूरत नही रहती, क्योकि स्यात्पदके साथ मे रहने से उनके अर्थविषय मे विवादका प्रभाव होता है । जहाँ कही विवाद हो वहाँ उनके क्रमशः प्रयोगमे भी कोई दोष नही है, क्योकि एक प्रतिपाद्यके भी सप्त प्रकारकी विप्रतिपत्तियोका सद्भाव होता है – उतने ही सशय उत्पन्न होते है, उतनी ही जिज्ञासाकी उत्पत्ति होती है और उतने ही प्रश्नवचनो ( सवालो ) की प्रवृत्ति होती है । और 'प्रश्नके वश से एक वस्तु मे विरोधरूपसे विधि-निषेधकी जो कल्पना है उसीका नाम सप्तभङ्गी है' । त. नाना प्रतिपाद्यजनोकी तरह एक प्रतिपाद्यजनके लिये भी प्रतिपादन करनेवालोका सप्त - विकल्पात्मक वचन विरुद्ध नही ठहरता है ।' ६० स्यादित्यपि स्याद्गुण-मुख्य- कल्पैकान्तो यथोपाधि - विशेष - वीदयः । तत्त्वं त्वनेकान्तमशेषरूपं द्विधा भवार्थ - व्यवहारवत्त्वात् ॥ ४६ ॥

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