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समन्तभद्र-भारती
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सामान्यका अभाव नहीं होता, उसकी दूसरे विशेषो-पर्यायोमे उपलब्धि देखी जाती है और इससे सामान्यका सर्व-विशेषोमे निष्ठ होना भी बाधित पडता है। फलत: दोनोको निरपेक्षरूपसे परस्परनिष्ठ मानना भी बाधित है, उसमे दोनोका ही अभाव ठहरता है और वस्तु अाकाशकुसुमके समान अवस्तु हो जाती है ।
___(यदि विशेष सामान्यनिष्ठ हैं तो फिर यह शंका उत्पन्न होती है कि वर्णसमूहरूप पद किसे प्राप्त करता है-विशेषको, सामान्यको, उभयको या अनुभयको, अर्थात् इनमेसे किसका बोधक या प्रकाशक होता है ? इसका समाधान यह है कि ) पद जो कि विशेषान्तरका पक्षपाती होता हैद्रव्य, गुण, कर्म इन तीन प्रकारके विशेषोमेंसे किसी एकमे प्रवर्तमान हुआ दूसरे विशेषोको भी स्वीकार करता है, अस्वीकार करनेपर किसी एक विशेष मे भी उसकी प्रवृत्ति नहीं बनती-वह विशेषको प्राप्त कराता है अर्थात् द्रव्य, गुण और कर्ममेसे एक को प्रधानरूपसे प्राप्त कराता है तो दूसरेको गौणरूपसे । साथ ही विशेषान्तरोंके अन्तर्गत उसकी वृत्ति होनेसे दूसरे (जात्यात्मक) विशेषको सामान्यरूपमें भी प्राप्त कराता है-यह सामान्य तिर्यक्सामान्य होता है। इस तरह पद सामान्य और विशेष दोनोको प्राप्त कराता है-एक को प्रधानरूपसे प्रकाशित करता है तो दूसरेको गौणरूपसे । विशेषकी अपेक्षा न रखता हुआ केवल सामान्य और सामान्यकी अपेक्षा न रखता हुश्रा केवल विशेष दोनो अप्रतीयमान होनेसे अवस्तु है, उन्हे पद प्रकाशित नहीं करता। फलत. परस्पर निरपेक्ष उभयको और अवस्तुभूत अनुभयको भी पद प्रकाशित नहीं करता । किन्तु इन सर्वथा सामान्य, सर्वथा विशेष, सर्वथा उभय और सर्वथा अनुभयसे विलक्षण सामान्यविशेषरूप वस्तुको पद प्रधान और गौणभावसे प्रकाशित करता हुआ यथार्थताको प्राप्त होता है, क्योकि ज्ञाताकी उस पदसे उसी प्रकारकी वस्तु में प्रवृत्ति और प्राप्ति देखी जाती है, प्रत्यक्षादि प्रमाणोकी तरह।'