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समन्तभद्र-भारतो
का०३६ ammmmmmmmmmmm अपनेको सिद्ध समझते तथा घोषित करते है-जो दोषोंके अपचय (विनाश) को अपेक्षा नही रखते-सिद्व होनेके लिये राग-द्वेपादि-विकारोको दूर करनेकी जिन्हें पर्वाह नहीं है और सुखाभिगृद्ध हैं--काम-सुखादिके लोलुपी हैं ।। और यह (सिद्धिकी मान्यतारूप प्ररूढ अन्धकार) उन्हीके युक्त है जिनके हे वीरजिन | आप ऋषि-गुरु नहीं है ।। -अर्थात् इस प्रकारकी घोर अजानताको लिये हुए अन्वेरगर्दी उन्ही मिथ्यादृष्टियोके यहा चलती है जो आप जैसे वीतदोष-सर्वज्ञ-स्वामीके उपासक नहीं है । (फलत:) जो शुद्धि और शक्तिकी पराकाष्ठाको पहुँचे हुए आप जैसे देवके उपासक है--आपको अपना गुरु-नेता मानते है-(और इसलिये ) जो हिसादिकमे विरक्तचित्त है, दया-दम-त्याग-समाधिकी तत्परताको लिये हुए आपके अद्वितीय शासन (मत) को प्राप्त है और नय-प्रमाण द्वारा विनिश्चित परमार्थकी एव यथावस्थित जीवादि-तत्त्वार्थोंकी प्रतिपत्तिमे कुशलमना हैं, उन सम्यग्दृष्टियोके इस प्रकारकी मिथ्या मान्यतारूप अन्धेरगर्दी (प्ररूढतमता) नहीं बनती, क्योकि प्रमादसे अथवा अशक्तिके कारण कही हिंसादिकका आचरण करते हुए भी उसमें उनके मिथ्या-अभिनिवेशरूप पाशके लिये अवकाश नही होता-वे उससे अपनी सिद्धि अथवा आत्मभलाईका होना नही मानते ।
यहाँ तकके इस युक्त्यनुशासन स्तोत्रमे शुद्धि और शकिकी परकाष्ठाको प्राप्त हुए वीरजिनेन्द्रके अनेकान्तात्मक स्याद्वादमत (शासन) को पूर्णत निर्दोष और अद्वितीय निश्चित किया गया है और उससे बाह्य जो सर्वथा एकान्तके श्राग्रहको लिये हुए मिथ्यामतोका समूह है उस सबका सक्षपसे निराकरण किया गया है, यह बात सद्बुद्धिशालियोको भले प्रकार समझ लेनी चाहिये '] 1. १ स्तोत्रे युक्त्यनुशासने जिनपतेर्वीरस्य निःशेषत संप्राप्तस्य विशुद्धि-शक्ति-पदवीं काष्ठां परामाश्रिताम् । निर्णीतं मतमद्वितीय-ममल सक्षेपतोऽपाकृतं तबाह्य वितथं मत च सकलं सद्धीधनबुध्यताम् ।। इति विद्यानन्द