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का० ३६
युक्त्यनुशासन प्रवृत्ति-रक्तः शम-तुष्टि-रिक्त - रुपेत्य हिंसाऽभ्युदयाङ्ग-निष्ठा । प्रवृत्तितः शान्तिरपि प्ररूढं
तमः परेषां तव सुप्रभातम् ॥३८॥ 'जो लोग शम और तुष्टिसे रिक्त है-क्रोधादिककी शान्ति और सन्तोष जिनके पास नहीं फटकते-(और इस लिये) प्रवृत्ति-रक्त हैंहिंसा, झूठ, चोरी, कुशील तथा परिग्रहमे कोई प्रकारका नियम अथवा मर्यादा न रखकर उनमे प्रकर्षरूपसे प्रवृत्त अथवा आसक्त है-उन (यज्ञवादी मीमासको) के द्वारा, प्रवृत्तिको स्वयं अपनाकर, 'हिसा अभ्युदय (स्वर्गादिकप्राप्ति) के हेतुकी आधारभूत है। ऐसी जो मान्यता प्रचलित की गई है वह उनका बहुत बड़ा अन्धकार है-अज्ञानभाव है। इसी तरह (वेदविहित पशुवधादिरूप) प्रवृत्तिसे शान्ति होती है ऐसी जो मान्यताहै वह भी (स्याद्वादमतसे बाह्य) दूसरोंका घोर अन्धकार है क्योकि प्रवृत्ति रागादिकके उद्रेकरूप अशान्तिकी जननी है न कि अरागादिरूप शान्तिकी । (अतः हे वीरजिन ) आपका मत ही (सकलअज्ञान-अन्धकारको दूर करनेमे समर्थ होनेसे ) सुप्रभातरूप है, ऐसा सिद्ध होता है।'
शीर्षोपहारादिभिरात्मदुःखैदेवान् किलाऽऽराध्य सुखाभिगृद्धाः । सिद्धयन्ति दोषाऽपचयाऽनपेक्षा
युक्त च तेषां त्वमृषिने येषाम् ।।३।। ‘जीवात्माके लिये दुःखके निमित्तभूत जो शीर्षोपहारादिक हैअपने तथा बकरे आदिके सिरकी बलि चढाना, गुग्गुल धारण करना, मकरको भोजन कराना, पर्वतपरसे गिरना जैसे कृत्य हैं-उनके द्वारा (यक्षमहेश्वरादि) देवोंकी आराधना करके ठीक वे ही लोग सिद्ध होते हैं