________________
का० ३७
युक्त्यनुशासन
न्तर - सिद्धिको न माननेवाले जो अतावक है - दर्शन मोहके उदयसे श्राकुलित चित्त हुए श्राप वीर जिनेन्द्रके मतसे बाह्य हैं - उन (जीविकामात्र तन्त्र-विचारकों) का भी हाय । यह कैसा प्रपतन हुआ है, जो उन्हें ससार समुद्रके आवर्त मे गिराने वाला है || '
४७
स्वच्छन्दवृत्तेर्जगतः स्वभावा . दुच्चैरनाचार-पथेष्वदोषम् । निर्घुष्य दीक्षासममुक्तिमानास्त्वद्दष्टि - बाह्या बत ! विभ्रमन्ते ||३७||
'स्वभावसे ही जगतकी स्वच्छन्द -वृत्ति - यथेच्छ प्रवृत्ति है, इस लिये जगत् के ऊंचे दर्जेके अनाचारमार्गो मे -- हिसा, झूठ, चोरी, कुशील (ब्रह्म) और परिग्रह नामके पाँच महापापों में भी कोई दोष नहीं, ऐसी घोषणा करके — उनके अनुष्ठान-जैसी सदोष प्रवृत्तिको निर्दोष बतलाकर - जो लोग दीक्षा के समकाल ही मुक्तिको मानकर अभिमानी हो रहे हैं - सहजग्राह्य - हृदय मे मन्त्रविशेषारोपण के समय ही मुक्ति हो जाने (मुक्तिका सर्टिफिकेट मिल जाने) का जिन्हे अभिमान है— अथवा दीक्षाका निरास जैसे बने वैसे ( दीक्षानुष्ठानका निवारण करनेके लिये ) मुक्तिको जो ( मीमासक ) अमान्य कर रहे है और मासभक्षण, मदिराणन तथा मैथुन सेवन -जैसे अनाचार के मार्गों के विषयमें स्वभावसे ही जगत् की स्वच्छन्द प्रवृत्तिको हेतु बताकर यह घोषणा कर रहे हैं कि उसमे कोई दोष नहीं है ' वे सब ( हे वीर जिन 1 ) आपकी दृष्टिसे - बन्ध, मोक्ष और तत्कारण- निश्चयके निबन्धनस्वरूप आपके स्याद्वाददर्शन से - बाह्य हैं और (सर्वथा एकान्तवादी होनेसे) केवल विभ्रममे पडे हुए है-तत्त्वके निश्चयको प्राप्त नही होते - यह बड़े ही खेद अथवा कष्टका विषय है |15
१ "न मासभक्षणे दोषा न मद्ये न च मैथुने "