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का० ७
युक्तयनुशासन
विशेष और समवाय इन छहों को - सर्वथा स्वतन्त्र मानकर यह कहा जाय कि समवाय- वृत्ति से शेष सब पदार्थ वृत्तिमान् है अर्थात् समवाय नामके स्वतन्त्र पदार्थ-द्वारा वे सब परस्परमे सम्बन्धको प्राप्त है, तो ) समवायवृत्तिके अवृत्तिमती होनेसे - समवाय नामके स्वतन्त्र पदार्थका दूसरे पदार्थोके साथ स्वयका कोई सम्बन्ध न बन सकनेके कारण उसे स्वय असम्बन्धवान् माननेसे - ससर्गकी हानि होती है— किसी भी पदार्थका सम्पर्क
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१ समवाय पदार्थका दूसरे पदार्थों के साथ कोई सम्बन्ध नहीं बन सकता, क्योकि सम्बन्ध तीन प्रकारका होता है— एक सयोग सम्बन्ध, दूसरा समवाय सम्बन्ध और तीसरा विशेषण - विशेष्यभाव-सम्बन्ध | पहला सयोग सम्बन्ध इसलिये नहीं बनता, क्योकि उसकी वृत्ति द्रव्यमें मानी गई है - द्रव्योंके अतिरिक्त दूसरे पदार्थोंमे वह घटित नहीं होतीऔर समवाय द्रव्य है नहीं, इसलिये सयोगसम्बन्धके साथ उसका योग नहीं भिड़ता । यदि श्रद्रव्यरूप समवाय मे सयोगकी वृत्ति मानी जायगी तो वह गुण नहीं बन सकेगा और वैशेषिक मान्यता के विरुद्ध पडेगा, क्योकि वैशेषिकमतमे संयोगको भी एक गुण माना है और उसको द्रव्याश्रित बतलाया है । दूसरा समवाय- सम्बन्ध इसलिये नहीं बन सकेगा, क्योकि वह समवायान्तरकी अपेक्षा रक्खेगा और एकके अतिरिक्त दूसरा समवाय पदार्थ वैशेषिकोने माना नही है । और तीसरा विशेषण- विशेष्यभाव-सम्बन्ध इसलिये घटित नहीं होता, क्योकि वह स्वतन्त्र पदार्थों का विषय ही नही है । यदि उसे स्वतन्त्र पदार्थों का विषय माना जायगा तो प्रसग दोष आएगा और तब सह्याचल (पश्चिमीघाटका एक भाग) तथा विन्ध्याचल जैसे स्वतन्त्र पर्वतोमें भी विशेषण- विशेष्य-भावका सम्बन्ध घटित करना होगा, जो नही हो सकता । विशेषण विशेष्यभावसम्बन्धी यदि पदार्थान्तरके रूपमें सभावना की जाय तो वह सम्बन्धान्तरकी अपेक्षा विना नहीं बनता और दूसरे सम्बन्धकी अपेक्षा लेनेपर अनवस्था दोष आता है। इस तरह तीनोमे से कोई भी सम्बन्ध घटित नहीं हो सकता ।