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समन्तभद्र-भारतो
का०२७ mmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm www.mmmmmmmmmmmmmmmmmx ( परस्पर सापेक्ष ) सामान्य-विशेषका न माननेके कारण व्यतीत-सामान्यविशेष-भाववादी प्रसिद्ध ही हैं और वीरशासनसे बाह्य है, उनका भी तत्त्व वास्तवमे विश्वामिलाप और अर्थ विकल्पसे शन्य होनेके कारण गगनकुसुमकी तरह उसी प्रकार अवस्तु ठहरता है जिस प्रकार कि ब्यतीतसामान्य-भाववादियोंका, व्यतीत-विशेष-भाववादियोका अथवा सर्वथा शन्यवादियोका तत्व अवस्तु ठहरता है।'
अतत्स्वभावेऽप्यनयोरुपायागतिर्भवेत्तौ वचनीय-गम्यौ। सम्बन्धिनौ चेन्न विरोधि दृष्टं
वाच्यं यथार्थ न च दूषणं तत् ॥२७॥ 'यदि कोई कहे कि शून्यस्वभावके अभावरूप सत्स्वभाव तत्त्वके माननेपर भी इन (बन्ध और मोक्ष ) दोनोकी उपायसे गति होतीहै-उपाय-द्वारा बन्ध और मोक्ष दोनो जाने जाते है-, दोनों वचनीय है और गम्य है-जब परार्थरूप वचन बन्ध-मोक्षकी गति का { जानकारी का ) उपाय होता है तब ये दोनों 'वचनीय' होते है और जब स्वार्थरूप प्रत्यक्ष या अनुमान बन्ध-मोक्षकी गतिका उपाय होता है तब ये दोनो 'गम्य होते है । साथ ही, दोनों सम्बन्धी हैं-परस्पर अविनाभाव-सम्बन्धको लिये हुए है, बन्धके विना मोक्षकी और मोक्षके विना बन्धकी सम्भावना नहीं, क्योकि मोक्ष बन्ध-पूर्वक होता है। और मोक्षके अभावमे बन्धको माननपर जो पहलेसे अबद्ध है उसके पीछेसे बन्ध मानना पडेगा अथवा शाश्वतिक बन्धका प्रसग पाएगा। अनादि बन्ध-सन्तानकी अपेक्षासे बन्धके बन्ध-पूर्वक होते हुए भी बन्धविशेषकी अपेक्षासे बन्धके अबन्ध-पूर्वकत्वकी सिद्धि होती है, प्राक् अबद्धके ही एकदेश मोक्षरूपता हानेसे बन्ध मोक्षके साथ अविनाभावी है और इस तरह दोनो अविनाभावसम्बन्धसे सम्बन्धित है-तो यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि इस