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समन्तभद्र भारतो
तस्या विशेषौ किल बन्ध-मोचौ हेत्वात्मनेति त्वदनाथवाक्यम् ||२५||
का० २५
'परमार्थवृत्ति से तत्त्व अभावमात्र है - न तो बाह्याभ्यन्तर निरन्वय क्षणिक परमाणुमात्र तत्त्व है, सौत्रान्तिक मतका निराकरण हो जानेसे, और न अन्तः सविसरमा मात्र या सवेदनाद्वैतमात्र तत्त्व है, योगाचारमतका निरसन हो जानेसे, किंतु माध्यमिक मतकी मान्यतानुरूप शून्यतत्त्व ही तत्त्व है और वह परमार्थवृत्ति स वृतिरूप है - तात्त्विकी नहीं, क्योकि शून्यमवित्ति तात्त्विकी होनेपर सर्वथा शून्य तत्त्व नही रहता, उसका प्रतिषेध हो जाता है - और सवृति सर्वविशेषोंसे शून्य है - पदार्थसद्भाववादियो के द्वारा जो तात्त्विक विशेष माने गये है उन सबसे रहित है -- तथा उस अविद्यात्मिका एवं सकलतात्त्विक - विशेष - शून्या स वृतिके भी जो बध और मोक्ष विशेष है वे हेत्वात्मक हैं--सावृतरूप हेतुस्वभाव द्वारा विधीयमान है अर्थात् आत्मीयाभिनिवेश के द्वारा बधका और नैरात्म्य - भावनाके अभ्यास द्वारा मोक्षका विधान है, दोनो में से कोई भी तात्त्विक नहीं है । और इस लिये दोनो विशेष विरुद्ध नही पड़ते ।' इस प्रकार ( हे वीर जिन ।) यह उनका वाक्य है - उन सर्वथाश न्यवादिबौद्धोका कथन है--जिनके आप (अनेकान्तवादी) नाथ नही हैं । ( फलतः ) जिनके श्राप नाथ है उन अनेकान्तवादियोका वाक्य ऐसा नही है किन्तु इस प्रकार है कि - स्वरूपादि चतुष्टयकी अपेक्षा से सत्रूप पदार्थ ही पररूषादि चतुष्टयकी अपेक्षासे प्रभाव (शून्य) रूप है । अभावमात्र के स्वरूपसे ही सत् होनेपर उसमे परमार्थिकत्व नही बनता, तब परमार्थवृत्तिसे भावमात्र कहना ही असंगत है ।'
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व्यतीत - सामान्य- विशेष - भावाद्
विश्वाऽभिलापाऽर्थ-विकल्प- शून्यम् ।