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का० ३५
युक्त्यनुशासन
और पर लाकके भयका हृदयोसे निकालकर तथा लोक-लाजको भी उठाकर उनकी पापमे निरकुश प्रवृत्ति कराते है, ऐमे लागोका आचार्यमहादयने जो 'निर्भय' और 'निर्लज्ज' कहा है वह ठीक ही है। ऐसे लोग विवेक-शून्य होकर स्वय विषयोमे अन्धे हुए दूसरोका भी उन पापोमे फँसाते हैं, उनका अध.-पतन करते है और उसमें श्रानन्द मनाते है, जा कि एक बहुत ही निकृष्ट प्रवृत्ति है।
यहा भोले जीवोके ठगाये जानेकी बात कहकर आचार्य-महोदयने प्रकारान्तरसे यह भी सूचित किया है कि जो प्रोढ बुद्धिके धारक विचारवान् मनुष्य है वे ऐसे ठग वचनोके द्वारा कभी ठगाये नही जा सकते । वे जानते है कि परमार्थसे जो अनादि-निधन उपयोग-लक्षण चैतन्यस्वरूप आत्मा है वह प्रमाणसे प्रसिद्ध है और पृथिव्यादि भूतोके समागमपर चैतन्यका सर्वथा उत्पन्न अथवा अभिव्यक्त होना व्यवस्थापित नहीं किया जा सकता । क्योंकि शरीराकार-परिणत पृथिव्यादि भूतोके सगत, अविकल और अनुपहतवीर्य होनेपर भी जिस चैतन्यशक्तिके वे अभिव्यञ्जक कहे जाते हैं उसे या तो पहलेसे सत् कहना होगा या असत् अथवा उभयरूप । इन तीन विकल्पोके सिवाय दूसरी कोई गति नहीं है। यदि अभिव्यक्त होनेवाली चैतन्यशक्तिको पहलेसे सत्रूप (विद्यमान) माना जायगा ता सर्वदा सत्रूप शक्तिकी ही अभिव्यक्ति सिद्ध होनेसे चैतन्यशक्तिके अनादित्व और अनन्तत्वकी सिद्धि ठहरेगी। और उसके लिये यह अनुमान सुघटित होगा कि--'चैतन्यशक्ति कथचित् नित्य है, क्योकि वह सत्रूप ओर अकारण है 'जैसे कि पृथिवी आदि भूतसामान्य ।' इस अनुमानमे सदकारणत्व' हेतु व्यभिचारादि दोषोसे रहित होनेके कारण समीचीन है
और इसलिये चैतन्यशक्तिका अनादि-अनन्त अथवा कञ्चित् नित्य सिद्ध करनेमे समर्थ है। __ यदि यह कहा जाय कि पिष्टोदकादि मयागोसे अभिव्यक्त होनेवाली मदशक्ति पहलेसे सत्रूप होते हुए भी नित्य नही मानी जाती और इस