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का०३४
युक्तयनुशासन
जब उसकी ही सिद्धि नही तब उसके द्वारा निर्दिष्ट होनेवाले निरश वस्तुतत्यकी सिद्धि कैसे बन सकती है १ नहीं बन सकती। अतः दोनो ही असिद्ध ठहरते है। ___ 'प्रत्यक्षकी सिद्धिके विना उसका लक्षणार्थ भी नहीं बन सकता'जो ज्ञान कल्पनासे रहित है वह प्रत्यक्ष है' ('प्रत्यक्ष कल्पनापोढम्' 'कल्पनापोढमभ्रान्त प्रत्यक्षम्' ) ऐसा बौद्धोके द्वारा निर्दिष्ट प्रत्यक्ष-लक्षण-का जो अर्थ प्रत्यक्षका बोध कराना है वह भी घटित नही हो सकता। अत. हे वोर भगवन् । आपके अनेकान्तात्मक स्याद्वादशासनका जो द्वेषी है- सर्वथा सत् प्रादिरूप एकान्तवाद है-उसमे सत्य घटित नहीं होता-एकान्तत. सस्यको सिद्ध नही किया जा सकता।'
कालान्तरस्थे क्षणिके ध्रु वे वाऽपृथक्पृथक्त्वाऽवचनीयतायाम् । विकारहाने न च कर्तृ कार्ये
वृथा श्रमोऽयं जिन ! विद्विषां ते ॥३४॥ ‘पदार्थके कालान्तरस्थायी होने पर-जन्मकालसे अन्यकालमे ज्योका त्यो अपरिणामी रूपसे अवस्थित रहने पर-, चाहे वह अभिन्न हो भिन्न हो या अनिर्वचनीय हो, कर्ता और कार्य दोनों भी उसी प्रकार नही बन सकते जिस प्रकार कि पदार्थके सर्वथा क्षणिक (अनित्य) अथवा ध्रुव (नित्य) होने पर नही बनते', क्योंकि तब विकारकी निवृत्ति होती है--विकार परिणामको कहते है, जो स्वय अवस्थित द्रव्यके पूर्वाकारके परित्याग, स्वरूपके अत्याग और उत्तरोत्तराकारके उत्पादरूप होता है । विकारकी निवृत्ति क्रम और अक्रमको निवृत्त करती है, क्योकि क्रम-अक्रमकी विकारके साथ व्याप्ति ( अविनाभाव
१. देखो, इसी प्रन्थकी कारिका ८, १२ श्रादि तथा देवागमकी कारिका ३७, ४१ श्रादि ।