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का० ३३
युक्तयनुशासन
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परमब्रह्म-तत्व भी नहीं देखा जाता - - उसका भी होना सम्भव है । हॉ, सत्वाऽसत्व से विमिश्र परस्पराऽपेक्षरूप तत्त्व जरूर देखा जाता है और वह उपाधिके स्वद्रव्य-क्षेत्र - काल - भावरूप तथा परद्रव्यक्षेत्र - काल - भावरूप विशेषणोके - भेदसे है अर्थात् सम्पूर्णतत्त्व स्यात् सत्रूप ही है, स्वरूपादिचतुष्टयकी अपेक्षा, स्यात् श्रसत्रूप ही है, पररूपादिचतुष्टय की अपेक्षा, स्यात् उभयरूप ही है, स्व-पर-रूपादिचतुष्टय-द्वयके क्रमार्पणाकी अपेक्षा, स्यात् श्रवाच्यरूप ही है, स्व-पर-रूपादि-चतुष्टयद्वय सहार्पणकी अपेक्षा, स्यात्सदवाच्यरूप ही है, स्वरूपादि-चतुष्टयकी अपेक्षा तथा युगपत्स्व-पर-रूपादिचतुष्टयोके कथन की शक्तिकी अपेक्षा, स्यात् असदवाच्य रूप ही है, पररूपादि चतुष्टयकी अपेक्षा तथा स्वपर रूपादि चतुष्टयोके युगपत् कहनेकी शक्तिकी अपेक्षा और स्यात् सदसदवाच्यरूप है, क्रमार्पित स्व-पर-रूपादिचतुष्टय-द्वयकी पेक्षा तथा सहापित उक्त चतुष्टयद्वयकी अपेक्षा । इस तरह तत्त्व सत् सत् आदिरूप विमिश्रित देखा जाता है और इसलिये हे वीर जिन । वस्तुके श्रतिशायनसे ( सर्वथा निर्देशद्वारा ) किञ्चित् सत्यानृतरूप बचन श्रापके ही युक्त हैं। आप ऋषिराजसे भिन्न जो दूसरे सर्वथा सत् आदि रूप एकान्तोंके बादी है उनके यह वचन अथवा इस रूप तत्त्व स्वममे भी सम्भव नही है।'
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प्रत्यक्ष- निर्देशवदप्यसिद्धमकल्पकं ज्ञापयितुं विना च सिद्धर्न च लक्षणार्थो
शक्यम् ।
न तावक - द्वेषिणि वीर ! सत्यम् ||३३||
' (यदि यह कहाजाय कि निर्विकल्पकप्रत्यक्ष निरश वस्तुका प्रतिभासी ही है, धर्म-धर्मात्मकरूप जो साश वस्तु है उसका प्रतिभासी नही - उसका प्रतिभासी वह सविकल्पक ज्ञान है जो निर्विकल्पक प्रत्यक्ष के अनन्तर