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का०२५
युक्तयनुशासन विरोधकी कोई बात नहीं' तो उसका यह कथन अपर्यालोचित है, क्योकि भ्रम-दाह-मूर्खादि विकारको जन्म देने वाला जङ्गमविष अन्य है और उसे जन्म न देने वाला—प्रत्युत उस विकारको दूर कर देने वाला-- स्थावरविष अन्य ही है, जो कि उस विषका प्रतिपक्षभूत है, और इस लिये अमृत-कोटिमे स्थित है, इसीसे विषका 'अमृत' नाम भी प्रसिद्ध है । विष सर्वथा विष नही होता, उसे सर्वथा विष माननेपर वह विषान्तरका प्रतिपक्षभूत नही बन सकता । अतः विषका यह उदाहरण विषम है। उसे यह कह कर साम्य उदाहरण नहीं बतलाया जासकता कि अविद्या भी जो ससारकी हेतु है वह अनादि-वासनासे उत्पन्न हुई अन्य ही है और अविद्याके अनुकूल है, किन्तु मोक्षकी हेतुभूत अविद्या दूसरी है, जो अनादि-अविद्याके जन्मकी निवृत्ति करने वाली तथा विद्याके अनुकूल है, और इसलिये ससारकी हेतु अविद्याके प्रतिपक्षभूत है । क्योकि जो सर्वदा अविद्याके प्रतिपक्षभूत है उससे अविद्याका जन्म नहीं हो सकता, उसके लिये तो विद्यात्वका प्रसङ्ग उपस्थित होता है । यदि अनादि-अविद्याके प्रतिपक्षत्वके कारण उस अविद्याको कथञ्चित् विद्या कहा जायगा तो उससे सवृतिवादियोके मतका विरोध होकर स्याद्वादि-मतकै आश्रयका प्रसग पाएगा। क्योकि स्याद्वादियोंके यहाँ केवलज्ञानरूप परमा विद्याकी अपेक्षा मतिज्ञानादिरूप क्षायोपशमिकी अपकृष्ट विद्या भी अविद्या मानी गई है--न कि अनादि-मिथ्याज्ञान-दर्शनरूप अविद्याकी अपेक्षा, क्योकि उसके प्रतिपक्षभूत होनेसे मतिज्ञानादिके विद्यापना सिद्ध है। अत. सर्वथा अविद्यात्मक भावना गुरुके द्वारा उपदिष्ट होती हुई भी विद्याको जन्म देनेमे समर्थ नहीं है । ऐसी अविद्याके उपदेशक गुरुको भी अगुरुत्वका प्रसग आता है, क्याकि विद्याका उपदेशी ही गुरु प्रसिद्ध है। और इस लये पुरुषाद्वैतकी तरह सवेदनाद्वैत तत्त्व भी अनुपाय ही है--किसी भी उपाय अथवा प्रमाणसे वह जाना नही जा सकता।)
अभावमात्रं परमाथवृत्तेः सा संवृतिः सर्व-विशेष-शून्या ।