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का० २६
युक्तयनुशासन
रव- पुष्पवत्स्यादसदेव तत्त्वं प्रबुद्ध-तत्त्वाद्भवतः परेषाम् ||२६||
'हे प्रबुद्ध-तत्त्व वीरजिन । आप अनेकान्तवादीसे भिन्न दूसरोका — अन्य एकान्तावदियोका - जो सर्वथा सामान्यभाव से रहित, सर्वथा विशेषभाव से रहित तथा ( परस्पर सापेक्षरूप ) सामान्यविशेषभाव दोनोसे रहित जो तत्व है वह ( प्रकटरूप मे शून्य तत्त्व न होते हुए भी ) सपूर्ण अभिलाणें तथा अर्थविकल्पोसे शून्य होनेके कारण आकाश- कुसुमके समान अवस्तु ही है ।'
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व्याख्या – सामान्य और विशेषका परस्पर श्रविनाभाव सम्बन्ध है - सामान्य विना विशेषका और विशेष के विना सामान्यका अस्तिव बन नही सकता । और इस लिये जो भेदवादी बौद्ध सामान्यको न मानकर सर्वतः व्यावृतरूप विशेष पदार्थोंको ही मानते है उनके वे विशेष पदार्थ भी नही बन सकते - सामान्य से विशेष के सर्वथा भिन्न न होनेके कारण सामान्य के प्रभावमे विशेष पदाथोके भी प्रभावका प्रसंग आता है और तत्त्व सर्वथा निरूपाख्य ठहरता है । और जो अभेदवादी साख्य सामान्यको ही एक प्रधान मानते है और कहते है कि महत् श्रहङ्कारादि विशेष चू कि सामान्यके विना नही होते इस लिये वे अपना कोई अलग ( पृथक् ) व्यक्तित्व ( अस्तित्व ) नही रखते - अव्यक्त सामान्य के ही व्यक्तरूप है - उनके सकल विशेषका अभाव होनेपर विशेषोके साथ अविनाभावी सामान्य के भीभावका प्रगाता है और व्यक्ताऽव्यक्तात्मक भोग्यके प्रभाव होनेपर भोक्ता श्रात्माका भी सभव ठहरता है । और इस तरह उन साख्योके, न चाहते हुए भी, सर्वशन्यस्वकी सिद्धि घटित होती है । व्यक्त और श्रव्यकमे कथञ्चित् भेद माननेपर स्या दि-न्याय के अनुसरण का प्रसंग ाता है और तब वह वाक्य (वचन) उनका नहीं रहता जिनके श्राप वीरजिनेन्द्र नायक नही है । इसी तरह परस्पर निरपेक्ष रूप से सामान्य विशेष भावको माननेवाले जो योग हैं- नैयायिक तथा वैशेषिक है - वे कथात् रूपसे