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समन्तभद्र-भारती
का० २४
परमार्थ-शून्य ठहरता है, दोनोमें परमार्थ - शून्यता-विषयक कोई भेद नही है, क्योकि ( हे वीर जिन 1 ) उनमेसे प्रत्येक वाक्य भवत्प्रतीप हैआपके अनेकान्त शासन के प्रतिकूल सर्वथा एकान्त-विषयरूपसे ही अङ्गीकृत है - और ( इस लिये ) परमार्थं शून्य है । ( फलत.) श्रापके अनेकान्तशासन का कोई भी वाक्य सर्वथा परमार्थ- शून्य नही है -- मोक्ष विद्यामृतके शासनको लिये हुए वाक्य जिस प्रकार मोक्षकारणरूप परमार्थसे • शून्य नही है उसी प्रकार रागाद्यविद्यानलका दीपक वाक्य भी बन्धकारणरूप परमार्थ से वास्तविकतासे --शून्य नही है ।
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विद्या प्रसूत्यै किल शील्यमाना भवत्यविद्या गुरुणोपदिष्टा । त्वदीयोक्त्यनभिज्ञ- मोहो यञ्जन्मने यत्तदजन्मने तत् ॥ २४ ॥
' ( हे वीर जिन ) आपकी उक्ति मे — स्याद्वादात्मक कथन - शैलीसे-अनभिज्ञका -- बौद्धोके एक सम्प्रदायका - यह कैसा मोह है-- विपरीताभिनिवेश है—-जो यह प्रतिपादन करता है कि 'गुरुके द्वारा उपदिष्ट
विद्या भाव्यमान हुई निश्चयसे विद्याको जन्म देनेमे समर्थ होती है " ( क्योकि ) इससे जो अविद्या अविद्यान्तरके जन्मका कारण सुप्रसिद्ध है वही उसके अजन्मका भी कारण होजाती है || और यह स्पष्ट विपरीताभिनिवेश है जो दर्शनमोहके उदयाऽभाव मे नही बन सकता । जो मदिरापान मदजन्मके लिये प्रसिद्ध है वही मदकी अनुत्पत्तिका हेतु होनेके योग्य नहीं होता ।'
यदि कोई कहे कि 'जिस प्रकार विषभक्षण विषविकारका कारण प्रसिद्ध होते हुए भी किंचित् विषयविकार के जन्मका - उसे उत्पन्न न होने देनेका - हेतु देखा जाता है, उसी प्रकार कोई श्रविद्या भी भाव्यमान (विशिष्ट भावना को प्राप्त ) हुई स्वय अविद्या - जन्म के प्रभावकी हेतु होगी, इसमे