________________
२६
समन्तभद्र भारती
का २२
का
'शास्ता-बुद्वदेवने ही ( यथार्थ दर्शनादि गुणोसे युक्त होने के कारण) अनवद्य वचनोकी शिक्षा दी, परन्तु उन वचोंके द्वारा उनके वे शिष्य शिक्षित नहीं हुए , यह कथन (बौद्धोका) अहो दूसरा दुर्गतम अन्धकार है-अतीव दुष्पार महामोह है ||-क्योकि गुणवान शास्ताके होनेपर प्रत्तिपत्तियोग्य प्रतिपाद्यो-शिष्योके लिये सत्यवचनोके द्वारा ही तत्त्वानुशासनका होना प्रसिद्ध है। बौद्धोके यहाँ बुद्धदेवके शास्ता प्रसिद्ध होनेपर भी, बुद्धदेवके वचनोको सत्यरूपमे स्वीकार करनेपर भी और (बुद्ध-प्रवचन सुननेके लिये) प्रणिहितमन (दत्तावधान) शिष्योके मौजूद होते हुए भी वे शिष्य उन वचनोसे शिक्षित नहीं हुए, यह कथन बौद्धोका कैसे अमोह कहा जासकता है ?-नही कहा जासकता, और इस लिये बौद्धोका यह दर्शन (सिद्धान्त) परीक्षावानोके लिये उपहासास्पद जान पडता है।
(यदि यह कहा जाय कि इस शासनमे सवृतिसे-व्यवहारसेशास्ता, शिष्य, शासन तथा शासनके उपायभूत वचनोका सद्भाव स्वीकार किया जानेसे और परमार्थसे सवेदनाद्वैतके नि.श्रेयस-लक्षणकी-निर्वाण- । रूपकी-प्रसिद्धि होनेसे यह दर्शन उपहासास्पद नही है, तो यह कहना भी ठोक नहीं है, क्योकि) हे आर्य-वीरजिन | आपके विना-श्राप जैसे स्याद्वादनायक शास्ताके अभावमे-नि श्रेयस ( कल्याण अथवा निर्वाण। बनता कौन-सा है, जिससे मवेदनाद्वैतको नि श्रेयसरूप कहा जाय ? सर्वथा एकान्त-वादका आश्रय लेनेवाले शास्ताके द्वारा कुछ भी सम्भव नही है, ऐसा प्रमाणसे परीक्षा किये जानेपर जाना जाता है । सर्वथा एकान्तवादमे सवृति और परमार्थ ऐसे दो रूपसे कथन ही नही बनता और दा रूपसे कथनमे सर्वथा एकान्तवाद अथवा स्याद्वादमत का विरोध स्थिर नहीं रहता।'
प्रत्यक्षबुद्धिः क्रमते न यत्र तल्लिङ्ग-गम्यं न तदर्थ-लिङ्गम् । वाचो न वा तद्विषयेण योगः का तद्गतिः ? कष्टमशृण्वतां ते ॥२२॥