________________
२०
समन्तमद्र-भारतो
का० १७
क्षणमे लेनेवालेका भी विनाश हा जाता है तथा अन्यका ही उत्पाद होता है और साक्षी - लेखादि भी कोई स्थिर नही रहता, सब उसी क्षण ध्वस्त हो जाते है । अधिगत किये हुए ( शास्त्र ) अर्थकी स्मृति भी 1 तब नही बनती - और इससे शास्त्राभ्यास निष्फल ठहरता है । 'क्त्वा' प्रत्ययका जो अर्थ- सत्य है - प्रमाणरूप से स्वीकृत है - वह भी नही बनता - क्योकि पूर्व और उत्तर - क्रियाका एक ही कर्ता होनेपर पूर्वकालकी क्रियाको 'क्या' ( करके ) प्रत्ययके द्वारा व्यक्त किया जाता है, जैसे 'रामो भुक्त्वा गतः ' - राम खाकरके गया । यहाँ खाना और जाना इन दोनो क्रियाका कर्ता एक ही राम है तभी उसकी पहली खानेकी क्रियाको 'करके' शब्द के द्वारा व्यक्त किया गया है, रामके क्षणभंगुर होनेपर वह दोनो क्रियाका कर्ता नही बनता और दोनो क्रियाओके कर्ता भिन्नभिन्न व्यक्ति होनेपर ऐसा वाक्य प्रयोग नही बनता '
' ( इसी प्रकार ) न कोई कुल बनता है और न कोई जाति ही बनती है - क्योकि सूर्यवशादिक जिस कुलमे किसी क्षत्रियका जन्म हुआ उस कुलका निरन्वय विनाश हो जानेसे उस जन्ममे उसका कोई कुल न रहा, तब उसके लिये कुलका व्यवहार कैसे बन सकता है ? क्षत्रियादि कोई जाति भी उस जाति के व्यक्तियोके विना असम्भव है । और अनेक व्यक्तियो मेसे तद्व्यावृत्तिके ग्राहक एक चित्तका असम्भव होनेसे अन्यापोहलक्षणा ( अन्यसे भावरूप, क्षत्रिय व्यावृत्तिरूप ) जाति भी घटित नही हो सकती । "
न शास्त्र - शिष्यादि - विधि-व्यवस्था विकल्पबुद्धिर्वितथाऽखिला चेत् । तत्त्व-तत्वादि - विकल्प-मोहे
निमज्जतां वीत - विकल्प- धीः का ? ॥ १७ ॥
" ( चित्तोके प्रतिक्षण भगुर अथवा निरन्वय-विनष्ट होनेपर ) शास्ता