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समन्तभद्र-भारती
का० १५
चित्त-सन्ततिके नाशरूप शान्त-निर्वाणका मार्ग ( हेतु ) जो नैरात्म्य-भावनारूप बतलाया जाता है वह भी नही बन सकेगा, क्योकि नाशके निर्हेतुक होनेसे सास्रव-चित्त-सन्ततिका नाश करनेके लिये किसी नाशकका होना विरुद्ध पडता है-स्वभावसे ही नाश मानने पर कोई नाशक नहीं बनता।
और वधक भी कोई नही रहता-क्योकि वह भी प्रलय-स्वभावरूप आकस्मिक है, जिस चित्तने वधका-हिसाका-विचार किया वह उसी क्षण नष्ट हो जाता है और जिसका वध हुआ वह उसके प्रलयस्वभावसे आकस्मिक हुआ, उसके लिये वधका विचार न रखने वाले किसी भी दूसरे चित्तको अपराधी नही ठहराया जा सकता।'
न बन्ध-मोक्षौ क्षणिकैक-संस्थौ न संवृतिः साऽपि मृषा-स्वभावा । मुख्याहते गौण-विधिर्न दृष्टो विभ्रान्त-दृष्टिस्तव दृष्टितोऽन्या ॥१॥
( पदार्थक प्रलय स्वभावरूप अाकस्मिक होनेपर ) क्षणिक-एकचित्तमे सस्थित बन्ध और मोक्ष भी नहीं बनते-क्योकि जिस चित्त का बन्ध है उसका निरन्वयविनाश हो जानेसे उत्तर-चित्त जो अबद्ध है उसीके मोक्षका प्रसग आएगा, और एक चित्त-सस्थित बन्ध मोक्ष उसे कहते है कि जिस चित्तका बन्ध हो उसीका मोक्ष होवे ।'
( यदि यह कहा जाय कि पूर्वोत्तर-चित्तोमे एकत्वके आरोपका वि कल्प करनेवाली 'सवृति' से क्षणिक एकचित्त-सस्थित बन्ध और मोक्ष बनते हैं, तो प्रश्न पैदा होता है कि वह सवृति मृषास्वभावा है या गौणविधिरूपा है ?) मृषास्वभावा सवृति क्षणिक एक चित्तमे बन्धमोक्षकी व्यवस्था करनेमे समर्थ नहीं है-उससे बन्ध और मोक्ष भो मिथ्या ठहरते है। और गौणविधि मुख्यके बिना देखी नही जाती ( पुरुषसिहकी तरह )-जिस प्रकार सी पुरुषको मुख्य सिहके अभावमे