________________
समन्तभद्र-भारतो
का० १३
नैवाऽस्ति हेतुः क्षणिकात्मवादे न सनसन्वा विभवादकस्मात् । नाशोदयकक्षणता च दुष्टा
सन्तान-भिन्न-क्षणयोरभावात् ॥१३॥ (परमार्थसे तो) नणिकात्मवादमे हेतु बनता ही नहीं। क्योंकि हेतुको यदि सतरूप माना जाय-सत्रूप ही पूर्वचित्तक्षण उत्तरचित्तक्षणका हेतु है ऐसा स्वीकार किया जाय तो इससे विभवका प्रसंग
आता है । अर्थात् एक क्षणवती चित्तमे चित्तान्तरकी उत्पत्ति होनेपर उस चित्तान्तरके कार्यकी भी उसी क्षण उत्पत्ति होगी, और इस तरह सक लचित्त और चैत्तक्षणोके एकक्षणवती हो जानेपर सकल जगत्-व्यापी चित्तप्रकारोकी युगपत् सिद्धि ठहरेगी। और ऐसा होनेसे, जिसे क्षणिक कहा जाता है वह विभुत्वरूप ही है--सर्व व्यापक है-यह कैसे निवारण किया जा सकता है ? नही किया जा सकता। इसके सिवाय, एकक्षणवर्ती सत्चित्त के पूर्व काल तथा उत्तरकालमे जगत् चित्तशून्य ठहरता है और सन्ताननिर्वाण-रूप जो विभवमोक्ष है वह सबके अनुपाय (विना प्रयत्नके ही) सिद्ध होता है, और इसलिए सत् हेतु नही बनता। (इस दोषसे बचनेके लिये ) यदि हेतुको असत् ही कहा जाय तो अकस्मात्विना किसी कारणके ही-कार्योत्पत्तिका प्रसग आएगा। और इस लिये असत् हेतु भी नहीं बनता।' ___ (यदि अाकस्मिक कार्योत्पत्तिके दोषसे बचनेके लिये कारणके नाशके अनन्तर दूसरे क्षणमे कार्यका उदय-उत्पाद न मानकर नाश और उत्पादको एक क्षणवर्ती माना जाय अर्थात् यह कहा जाय कि जिसका नाश ही कार्यका उत्पाद है वह उस कार्यक हेतु है तो यह भी नही बनता, क्योकि संतानके भिन्न क्षणोंमे नाश और उदयकी एक-क्षणताका अभाव होनेसे नाशोदयैकक्षणतारूप युक्ति सदोष है-जैसे सुषुप्त सन्तानमे जाग्रत चित्तका जो नाश-क्षण ( विनाश-काल.) है वही प्रबुद्ध चित्तका