Book Title: Yuktyanushasan
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

View full book text
Previous | Next

Page 81
________________ का० १७ युक्तयनुशासन और शिष्यादिके स्वभाव - स्वरूपकी (भी) कोई व्यवस्था नही बनतीक्योकि तब तत्त्वदर्शन, परानुग्रहको लेकर तत्त्व - प्रतिपादनकी इच्छा और तत्त्वप्रतिपादन, इन सब कालोमे रहनेवाले किसी एक शासक ( उपदेष्टा ) का अस्तित्व नही बन सकता । और न ऐसे किसी एक शिष्यका ही अस्तित्त्व घटित हो सकता है जो कि शासन श्रवण ( उपदेश सुनने ) की इच्छा और शासन के श्रवण, ग्रहण, धारण तथा अभ्यसनादि कालो में व्यापक हो । 'यह शास्ता है और मै शिष्य हूँ' ऐसी प्रतिपत्ति भी किसी के नही बन सकती । और इसलिये बुद्ध - सुगतको जो शास्ता माना गया है और उनके शिष्योकी जो व्यवस्था की गई है वह स्थिर नहीं रह सकती । इसी तरह ( ' श्रादि' शब्द से ) स्वामी सेवक, पिता-पुत्र और पौत्र - पितामह श्रादिकी भी कोई विधि व्यवस्था नही बैठ सकती, सारा लोक व्यवहार लुप्त हो जाता अथवा मिथ्या ठहरता है ।' 1 २१ '( यदि बौद्धोकी ओर से यह कहा जाय कि बाह्य तथा श्राभ्यन्तररूपसे प्रतिक्षण स्वलक्षणों स्वपरमाणुओ) के विनश्वर होनेपर परमार्थसे तो मातृघाती आदि तथा शास्ता - शिष्नादिकी विधि-व्यवस्थाका व्यवहार सम्भव नही हो सकता, तब १ ) यह सब विकल्प बुद्धि है ( जो अनादि-वासनासे समुद्भूत होकर मातृघाती श्रादि तथा शास्ता शिष्यादिरूप विधि व्यवस्थाकी हेतु बनी हुई है) और विकल्प बुद्धि सारी मिथ्या होती है, ऐसा कहने वालों (बौद्ध) के यहा, जो ( स्वय) तत्त्व तत्त्वादिके विकल्प - मोहमे डूबे हुए है, निर्विकल्प बुद्धि बनती कौन-सी है ?काई भी सार्थिका और सच्ची निर्विकल्प बुद्धि नही बनती, क्योकि मातृघाती आदि सब विकल्प तत्त्वरूप है और उनसे जा कुछ अन्य हैं वे तत्त्वरूप हैं यह व्यवस्थिति भी विकल्पवासना के बलपर ही उत्पन्न होती है । इसी तरह 'सवृति' (व्यवहार) से 'तत्त्व' की और परमार्थसे 'तत्त्व' की व्यवस्था भी विकल्प - शिल्पीके द्वारा ही घटित की जा सकती है— वस्तुबल से नही । इस प्रकार विकल्प-मोह बौद्धोके लिये महासमुद्र की तरह दुष्पार ठहरता है । इस यदि यह कहा जाय कि बुद्धोकी धर्म देशना ही दो सत्योको लेकर हुई है ܢ -

Loading...

Page Navigation
1 ... 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148