________________
का० १६
युक्तयनुशासन
१६
Comp
'पुरुषसिंह' कहना नही बनता उसी प्रकार किसी चित्त मे मुख्यरूपसे बन्धमाक्षका मन्तिष्ठमान बतलाये बिना बन्ध - मोक्षकी गौरविधि नहीं बनती, इससे मुख्यविविके प्रभाव मे गौणविधिरूप संवृति भी किमी एक क्षणिक चित्तमे बन्ध-मोक्ष की व्यवस्था करनेमे असमर्थ है ( त हे वीरजिन 1 ) आपकी ( स्याद्वादरूपिणी अनेकान्त ) दृष्टिसे भिन्न जो दूसरी (क्षणिकात्मवादियोकी सर्वथा एकान्त ) दृष्टि है वह विभ्रान्त दृष्टि है - सब आरसे दोषरूप होने के कारण वस्तुतत्त्वको यथार्थ रूप से प्रतिपादन करने मे समर्थ नही है ।
प्रतिक्षणं भङ्गिषु तत्पृथक्त्वा - नाव - घाती स्व- पतिः स्व-जाया । दत्त - ग्रहो नाऽधिगत-स्मृतिर्न
न क्त्वार्थ- सत्यं न कुलं न जाति: ॥ १६ ॥
-
'क्षण-क्षणमे पदार्थो को भगवान् — निरन्वय विनाशवान - माननेपर उनके पृथक्पनकी वजह से - सर्वथा भिन्न होने के कारण - कोई मातृघाती नहीं बनता - क्योकि तब पुत्रोत्पत्तिके क्षणमे ही माताका स्वय नाश हो जाता है, उत्तरक्षणमे पुत्रका भी प्रलय हो जाता है और पुत्र का ही उत्पाद होता है, न कोई किसी ( कुलस्त्री ) का स्वपति बनता है, क्योकि उसके विवाहित पतिका उसी क्षण विनाश हो जाता है, अन्य विवाहितका उत्पाद होता है, और न कोई किसीकी स्वपत्नी ( विवाहिता स्त्री ) ठहरती है— क्योकि उसकी विवाहिता स्त्रीका उसी क्षण विनाश हो जाता है, अन्य विवाहिताका ही उत्पाद होता है, और इससे परस्त्रीसेवनका भी प्रसङ्ग श्राता है । '
' ( इसी तरह ) दिये हुए धनादिकका ( ऋणी श्रादिके पाससे) पुन ग्रहण ( वापिस लेना ) नही बनता - क्योकि बौद्ध मान्यतानुसार जो ऋण देता है उसका उसी क्षण निरन्वय विनाश हो जाता है, उत्तर