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समन्तभद्र-भारती
का० १२
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है, क्योकि सन्तानभिन्न (चित्त ) में-हेतु (साधन) और हेतुमद् ( साध्य ) के अविनाभाव-सम्बन्धरूप व्याप्तिके ग्राहक चित्तसे अनुमाताका चित्त ( सन्तानत. भिन्नकी तरह ) भिन्नसन्तान होनेसे उसमे-वासनाका अस्तित्व नही बन सकता। यदि भिन्न-सन्तानवालेके वासनाका अस्तित्व माना जाय तो भिन्नसन्तान देवदत्त-द्वारा साध्य-साधनकी व्याप्तिका ग्रहण होनेपर जिनदत्तके ( व्याप्तिका ग्रहण न होनेपर भी) साधनको देखने मात्रसे साध्य के अनुमानका प्रसग अाएगा, क्योकि दोनोमे कोई विशेष नहीं है । और यह बात सभव नही हो सकती, क्योकि व्याप्तिके ग्रहण-विना अनुमान प्रवर्तित नहीं हो सकता।'
तथा न तत्कारण-कार्य-भावो निरन्वयाः केन समानरूपाः । असत्खपुष्पं न हि हेत्वपेक्षं
दृष्टं न सिद्धयत्युभयोरसिद्धम् ॥१२॥ (जिस प्रकार सन्तानभिन्न चित्तमे वासना नहीं बन सकती ) उसी प्रकार सतानभिन्न चित्तोंमे कारण-कार्य-भाव भी नहीं बन सकतासन्तानभिन्न चित्तोमे भी कारण-कार्य-भाव मानने पर देवदत्त और जिनदत्तके चित्तोमे भी कारण-कार्य-भावके प्रवर्तित होनेका प्रसग आएगा, जो न तो दृष्ट है और न बौद्धोके द्वारा इष्ट है।' ___(यदि यह कहा जाय कि एक सन्तानवर्ती समानरूप चित्तक्षणोके ही कारण कार्य-भाव होता है, भिन्नसन्तानवर्ती असमानरूप चित्तक्षरोके कारणकार्य-भाव नहीं होता,तो यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योकि)जो चित्त-क्षण क्षणविनश्वर निरन्वय ( सन्तान-परम्परासे रहित ) माने गये हैं उन्हे किसके साथ समानरूप कहा जाय ?--किसी भी स्वभावके साथ वे समानरूप नहीं है, और इसलिए उनमे कारण-का भाव घटित नही हो