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का० ११
युक्तयनुशासन
चाऽप्यदृष्टो
हेतुर्न दृष्टोऽत्र न योऽयं प्रवादः क्षणिकाऽऽत्मवादः । ध्वस्तमन्यत्र भवे द्वितीये ' सन्तानभिन्नेन हि वासनाऽस्ति ||११||
'न
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'प्रथम क्षणमे नष्ट हुआ चित्त - आत्मा दूसरे क्षरणमे विद्यमान रहता' यह जो (बौद्धोका ) क्षणिकात्मवाद है वह ( केवल ) प्रवाद है - प्रमाणशून्य वाद हानेसे प्रलापमात्र है, क्योंकि इसका ज्ञापक – अनुमान करानेवाला - कोई भी दृष्ट या अदृष्ट हेतु नही
बनता ।'
( यदि यह कहा जाय कि 'जो सत् है वह सब स्वभावसे हो क्षणिक हैं, जैसे शब्द और विद्युत आदि, अपना आत्मा भी चूँ कि सत् है त वह भी स्वभावसे क्षणिक है, और यह स्वभावहेतु ही उसका ज्ञापक है, तो इस प्रकार के अनुमानपर- ऐसा कहने अथवा अनुमान लगानेपर - यह प्रश्न पैदा होता है कि वह हेतु स्वय प्रतिपत्ता ( ज्ञाता ) के द्वारा दृष्ट ( देखा गया ) है या दृष्ट ( नही देखा गया अर्थात् कल्पनारोपित ) है ? दृष्टहेतु सभव नही हो सकता, क्योकि सब कुछ क्षणिक होनेके कारण दर्शन के अनन्तर ही उसका विनाश हो जानेसे अनुमान कालमे भी उसका भाव होता है । साथही, चित्तविशेषके लिङ्ग-दर्शी उस अनुमाताका भी सभव नही रहता । इसी तरह कल्पनारोपित ( कल्पित ) दृष्ट हेतु भी नही बनता, क्योकि उस कल्पनाका भी तत्क्षण विनाश हो जानेसे अनुमानकालमें सद्भाव नहीं रहता । )
' ( यदि यह कहा जाय कि व्याप्तिके ग्रहणकाल मे लिङ्गदर्शनकी जो कल्पना उत्पन्न हुई थी उसके तत्क्षण विनाश हो जानेपर भी उसकी वासना ( सस्कार ) बनी रहती है अतः अनुमान - कालमें लिङ्ग-दर्शन से प्रबुद्ध हुई उस वासनाके सामर्थ्य से अनुमान प्रवृत्त होता है, तो ऐसा कहना युक्त नही