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का० ७
युक्त्यनुशासन
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अधृष्यमन्यैरखिलैः प्रवाद
र्जिन ! त्वदीयं मतमद्वितीयम् ॥६॥ 'हे वीरजिन | आपका मत--अनेकान्तात्मक शासन-दया (अहिंसा ), दम ( सयम ), त्याग ( परिग्रह-त्यजन) और समाधि ( प्रशस्तध्यान ) को निष्ठा-तत्परताको लिये हुए है-पूर्णत. अथवा देशत. प्राणिहिंसासे निवृत्ति तथा परोपकारमे प्रवृत्तिरूप वह दयाव्रत जिसमे असत्यादिसे विरक्तिरूप सत्यव्रतादिका अन्तर्भाव ( समावेश ) है, मनोज्ञ और अमनोज इन्द्रिय-विषयोमे राग-द्वेषकी निवृत्तिरूप सयम, बाह्य और श्राभ्यन्तर परिग्रहोका स्वेच्छासे त्यजन अथवा दान, और धर्म तथा शुक्लध्यानका अनुष्ठान, ये चारो उसके प्रधान लक्ष्य हैं। (साथ ही) नयो तथा प्रमाणोके द्वारा (असम्भवबाधकविषय-स्वरूप ) सम्यक् वस्तुतत्त्वको बिल्कुल स्पष्ट (सुनिश्चित) करनेवाला है और ( नेकान्तवाटसे भिन्न) दूसरे सभी प्रवादोंसे अवाध्य है-दर्शनमोहोदयके वशीभूत हुए सर्वथा एकान्तवादियोके द्वारा प्रकल्पित वादोमेसे कोई भी वाद ( स्वभावसे मिथ्यावाद होनेके कारण ) उसके ( सम्यग्वादात्मक ) विषयको बाधित अथवा दूषित करनेके लिये समर्थ नही है---( यही सब उसकी विशेषता है और इसीलिये वह ) अद्वितीय है-अकेला ही सर्वाधिनायक होनेकी क्षमता रखता है।
अभेद-भेदात्मकमर्थतत्त्वं तव स्वतन्त्राऽन्यतरत्ख-पुष्पम् । अवृत्तिमत्वात्समवाय-वृत्तेः
संसर्गहानेः सकलाऽर्थ-हानिः ॥७॥ ( हे वीरभगवन् । ) आपका अर्थतत्त्व-आपके द्वारा मान्य-प्रतिपादित अथवा आपके शासनमे वर्णित जीवादि वस्तुतत्त्व-अभेद-भेदा