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समन्तभद्र-भारती
का०७
त्मक है-परस्परतन्त्रता ( अपेक्षा, दृष्टिविशेष) को लिये हुए अभेद
और भेद दोनो रूप है अर्थात् कथञ्चित् द्रव्य पर्यायरूप, कथञ्चित् सामान्यविशेषरूप, कथञ्चित् एकाऽनेकरूप और कथञ्चित् नित्याऽनित्यरूप है, न सर्वथा अभेदरूप (द्रव्य, सामान्य, एक अथवा नित्यरूप ) है, न सर्वथा भेदरूप ( पर्याय, विशेष, अनेक अथवा अनित्यरूप ) है और न सर्वथा उभयरूप ( परस्परनिरपेक्ष द्रव्य-पर्यायमात्र, सामान्य-विशेषमात्र, एकअनेकमात्र अथवा नित्य-अनित्यमात्र) है। अभेदात्मकतत्त्व (द्रव्यादिक)
और भेदात्मकतत्त्व (पर्यायादिक) दोनोको स्वतन्त्र-पारस्परिक तन्त्रतासे रहित सर्वथा निरपेक्ष-स्वीकार करनेपर प्रत्येक-द्रव्य, पर्याय तथा उभय, सामान्य, विशेष तथा उभय, एक, अनेक तथा उभय, और नित्य, अनित्य तथा उभय-आकाशके पुष्प-समान (अवस्तु) हो जाता है-प्रतीयमान (प्रतीतिका विषय ) न हो सकनेसे किसीका भी तब अस्तित्व नहीं बनता।'
(इसपर यदि यह कहा जाय कि स्वतन्त्र एक द्रव्य प्रत्यक्षादिरूपसे उपलन्यमान न होनेके कारण क्षणिकपर्यायकी तरह आकाश-कुसुमके समान अवस्तु है सो तो ठीक, परन्तु उभय तो द्रव्य-गुण-कर्म-सामान्य-विशेषसामावायरूप सत् तत्त्व है और प्रागभाव-प्रध्वसाभाव-अन्योन्याभाव-अत्यताभावरूप असत् तत्त्वहै, वह उनके स्वतन्त्र रहते हुएभी कैसे आकाशके पुष्पसमान अवस्तु है ? वह तो द्रव्यादि-ज्ञानविशेषका विषय सर्वजनोमे सुप्रसिद्ध है, तो ऐसा कहना ठीक नहीं है, क्योकि कारणद्रव्य (अवयव )-कार्यद्रव्य (अवयवी) की, गुण-गुणीकी, कर्म-कर्मवान्की समवाय-समवायवान्की एक दूसरेसे स्वतन्त्र पदार्थके रूपमे एक वार भी प्रतीति नही होती । वस्तुतत्व इससे विलक्षण-जात्यन्तर अथवा विजातीय-है और वह सदा सबोको अवयव-अवयवीरूप, गुण-गुणीरूप, कर्म-कर्मवान्रूप तथा सामान्य-विशेषरूप प्रत्यक्षादि-प्रमाणोसे निर्बाध प्रतिभासित होता है।)
(यदि वैशेषिक-मतानुसार पदाथोको-द्रव्य गुण, कर्म, सामान्य,