Book Title: Yuktyanushasan
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 68
________________ समन्तभद्र-भारती का०८ अथवा सम्बन्ध एक दूसरेके साथ नही बनता । समवाय-समवायिकी तरह असस्पृष्ट पदार्थोंके समवायवृत्तिसे ससर्गकी कल्पना न करके, पदाथोके अन्योऽन्य-ससर्ग ( एक दूसरेके साथ सम्बन्ध ) को स्वभावसिद्ध माननेपर स्याद्वाद शासनका ही आश्रय होजाता है, क्योकि स्वभावसे ही द्रव्यका सभी गुण-कर्म-सामान्य-विशेषोके साथ कथञ्चित् तादात्म्यका अनुभव करने वाले ज्ञानविशेषके वशसे यह द्रव्य है, यह गुण है, यह कर्म है, यह सामान्य है, यह विशेष है और यह उनका अविश्वग्भावरूप (अपृथग्भूत ) समवाय-सम्बन्ध है, इस प्रकार भेद करके सन्नयनिबन्धन (समीचीन नयव्यवस्थाको लिये हुए) व्यवहार प्रवर्तता है और उससे अनेकान्तमत प्रसिद्ध होता है, जो वैशेषिकोको इष्ट नहीं है और इसलिये वैशेषिकोके मतमे स्वभावसिद्ध ससर्गके भी न बन सकनेसे ससर्गकी हानि ही ठहरती है । और संसर्गकी हानि होनेसे-पदाथोका परस्परमे स्वत. (स्वभावसे)अथवा परत. (दूसरेके निमित्तसे ) कोई सम्बन्ध न बन सकनेके कारण-सपूर्ण पदार्थोकी हानि ठहरती है किसी भी पदार्थकी तब सत्ता अथवा व्यवस्था बन नही सकती।-अत• जो लोग इस हानिको नहीं चाहते उन आस्तिकोके द्वारा वही वस्तुतत्त्व समर्थनीय है जो अभेद-भेदात्मक है, परस्पर तन्त्र है, प्रतीतिका विषय है तथा अर्थक्रियामें समर्थ है और इसलिये जिसमे विरोधके लिये कोई अवकाश नही है । वह वस्तुतत्त्व हे वीरजिन ! आपके मतमें प्रतिष्ठित है, इसीसे आपका मत अद्वितीय है-नयो तथा प्रमाणोके द्वारा वस्तुतत्त्वको बिल्कुल स्पष्ट करनेवाला और दूसरे सभी प्रवादो ( सर्वथा एकान्तवादो ) से अबाध्य होनेके कारण सुव्यवस्थित है-दूसरा (सव था एकान्तवादका आश्रय लेनेवाला) कोई भी मत व्यवस्थित न होनेसे उसके जोडका, सानी अथवा समान नहीं है, वह अपना उदाहरण आप है। भावेषु नित्येषु विकारहानेनं कारक-व्यापृत-कार्य-युक्तिः ।

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