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का० ६
युक्तयनुशासन
न बन्ध-भोगौ न च तद्विमोक्षः समन्तदोषं मतमन्यदीयम् ॥ ८ ॥
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'सत्तात्मक पदार्थोंको - दिक्-काल - श्राकाश - आमाको, - पृथिव्यादि - परमाणु - द्रव्योका, परम - महत्त्वादि गुणोको तथा सामान्य- विशेष - समवायको - ( सर्वथा ) नित्य माननेपर उनमे विकारकी हानि होती हैकोई भी प्रकारकी विक्रिया नही बन सकती — विकारकी हानि से कर्त्तादि कारकोका ( जो क्रियाविशिष्ट द्रव्य प्रसिद्ध है उनका ) व्यापार नही बन सकता, कारक - व्यापार के अभाव मे ( द्रव्य-गुण-कर्मरूप ) कार्य नही बन सकता, और कार्य के अभावमे ( कार्यलिगात्मक श्रनुमानरूप तथा योग-सम्बन्ध-ससर्गरूप ) युक्ति घटित नही हो सकती । युक्तिके अभाव मे बन्ध तथा ( बन्ध - फलानुभवनरूप ) भोग दोनों नहीं बन सकते और न उनका विमोक्ष ही बन सकता है, क्योंकि विमोक्ष बन्धपूर्वक ही होना है, बन्धके प्रभावमे मोक्ष कैसा ? इस तरह पूर्व- पूर्वके अभाव मे उत्तरोत्तरकी व्यवस्था न बन सकनेसे सपूर्ण भावात्मक पदाथोकी हानि ठहरती है— किसीकी भी व्यवस्था नहीं बन सकती । और जब भावात्मक पदार्थ ही व्यवस्थित नही होते तब प्रागभाव - प्रध्वसाभावादि भावात्मक पदार्थोकी व्यवस्था तो कैसे बन सकती है ? क्योकि वे भावात्मक पदार्थोके विशेषण होते है, स्वतत्ररूप से उनकी कोई सत्ता ही नही है । अतः ( हे वीरजिन ! ) आपके मतसे भिन्न दूसरों का - सर्वथा एकान्तवादी वैशेषिक, नैयायिक मीमासक तथा साख्य श्रादिका - मत ( शासन) सब प्रकार से दोषरूप है— देश, काल और पुरुषविशेष की अपेक्षासे भी प्रत्यक्ष, अनुमान तथा श्रागम गम्य सभी स्थानोमे बाधित है ।"
स्वभाव
अहेतुकत्व प्रथितः स्तस्मिन् क्रिया-कारक - विभ्रमः स्यात् । बाल-सिद्ध विविधार्थ-सिद्धिर्वादान्तरं किं तदसूयतां ते ॥६॥
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