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समन्तभद्र-भारती
का०६ सब आत्म-विकास मोहनीयकर्मके पूर्णत. विनाश-पूर्वक होनेसे उस विनाशसे उत्पन्न होनेवाले परम शान्तिमय सुखको साथमे लिये हुए है। (इसीसे ) आप ब्रह्मपथके-श्रात्मविकास-पद्धति अथवा मोक्ष-मार्गके-नेता हैंअपने आदर्श एव उपदेशादि-द्वारा दूसरोको उस आत्मविकासके मार्गपर लगानेवाले हैं और महान है-पूज्य परमात्मा है-,इतना कहने अथवा दूसरोंको सिद्ध करके बतलाने के लिये हम समर्थ है।'
कालः कलिर्वा कलुषाऽऽशयो वा श्रोतुः प्रवक्तुर्वचनाऽनयो वा। त्वच्छासनैकाधिपतित्व-लक्ष्मी
प्रभुत्व-शक्तेरपवाद-हेतुः ॥॥ '( इस तरह आपके महान् होते हुए, हे वोरजिन | )आपके शासनमे-अनेकान्तात्मक मतमे- (नि.श्रेयस और अभ्युदयरूप लक्ष्मीकी प्राप्तिका कारण होनेसे) एकाधिपतित्वरूप लक्ष्मीका-सभी अर्थ-क्रियार्थिजनोके द्वारा अवश्य प्राश्रयनीयरूप सम्पत्तिका-स्वामी होनेकी जो शक्ति है-आगमान्विता युक्तिके रूपमे मामर्थ्य है-उसके अपवादकाएकाधिपत्य प्राप्त न कर सकनेका कारण ( वर्तमानमे ) एकतो कलिकाल है-जो कि साधारण बाह्य कारण है, दूसरा प्रवक्ताका वचनाsनय है-श्राचार्यादि प्रवक्तवर्गका प्राय. अप्रशस्त-निरपेक्ष नयके साथ वचनव्यवहार है अर्थात् सम्यक्नय-विवक्षाको लिये हुए उपदेशका न देना है-जो कि असाधारण बाह्य कारण है, और तीसरा श्रोताका-श्रावकादि-श्रोतृवर्गका कलुषित आशय है-दर्शनमोहसे प्राय आक्रान्त चित्त है-जोकि अन्तरग कारण है।'
दया-दम-त्याग-समाधि-निष्ठं नय-प्रमाण-प्रकृताऽऽञ्जसार्थम् ।