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समन्तमद्र-भारती
का०२
स्वतन्त्रता प्राप्त की है-, आप निश्चितरूपसे ऋद्धमान (प्रवृद्धप्रमाण) हैं-आपका तत्त्वज्ञानरूप प्रमाण (केवलज्ञान) स्याद्वाद-नयसे सस्कृत होनेके कारण प्रवृद्ध है अर्थात् सर्वोत्कृष्ट एव अबाध्य है-और (इस प्रवृद्धप्रमाणके कारण) आप महती कीर्तिसे भूमण्डलपर वर्द्धमान है--जीवादितत्त्वाथोका कीर्तन (सम्यग्दर्शन) करनेवाली युक्ति-शास्त्राऽविरोधिनी दिव्यवाणीसे साक्षात् समवसरणकी भूमिपर तथा परम्परासे परमागमकी विषयभूत सारी पृथ्वीपर छोटे-बडे, ऊँच-नीच, निकटवर्ती-दूरवर्ती तत्कालीन और उत्तरकालीन सभी पर-अपर परीक्षकजनोके मनोका सशयादिके निरसनद्वारा पुष्ट एव व्याप्त करते हुए आप वृद्धि-व्याप्तिको प्राप्त हुए है--सदा सर्वत्र और सबोके लिये 'युक्ति-शास्त्राऽविरोधिवाक्' के रूप में अवस्थित है, यह बात परीक्षा-द्वारा सिद्ध हो चुकी है। (अत.) अब-परीक्षाऽवसानके समय अर्थात् ( प्राप्तमीमासाके द्वारा) युक्ति-शास्त्राऽविरोधिवाक्त्व हेतुसे परीक्षा करके यह निर्णय कर चुकनेपर कि आप विशीर्ण-दोषाशय-पाशबन्धत्वादि तीन असाधारण गुणो (कर्मभेत्तृत्व, सर्वजत्व, परमहितोपदेशकत्व) से विशिष्ट है-आपको स्तुतिगोचर मानकर-स्तुतिका विषयभूत प्राप्तपुरुष स्वीकार करके-हम-परीक्षाप्रधानी मुमुक्षुजन-आपको अपनी स्तुतिका विषय बनाना चाहते हैं-आपकी स्तुति करनेमे प्रवृत्त होना चाहते है।'
याथात्म्यमुल्लंध्य गुणोदयाऽऽख्या लोके स्तुतिभूरि-गुणोदधेस्ते । अणिष्ठमप्यंशमशक्नुवन्तो
वक्त जिन ! त्वां किमिव स्तुयाम ॥२॥ _ 'यथार्थताका-यथावस्थित स्वभावका-उल्लघन करके गुणोंकेचौरासी लाख गुणोमेसे किसीके भी-उदय-उत्कर्षकी जो आख्या-कथनी है-बढा चढाकर कहनेकी पद्धति है-उसे लोकमे 'स्तुति' कहते है। परन्तु हे वीरजिन | आप भूरिगुणोदधि है-अनन्तगुणोके समुद्र है-और उस गुणसमुद्रके सूक्ष्मसे सूक्ष्म अ शका भी हम (पूरे