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युक्त्यनुशासन
स्याद्वाद-शासनमे अभेदबुद्धिसे अविशिष्टता और भेद
बुद्धिसे विशिष्टताकी प्राप्ति होता है। ८३ वारका अनेकान्त-शासन ही 'सर्वोदयतीर्थ' है, वह गौण
तथा मुख्यकी कल्पनाको लिये हुए सर्वान्तवान् ( अशेषधर्मोका आश्रय), सर्व आपदाओका अन्त करनेवाला और स्वयं निरन्त है। ना ।
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८२ ८४ जो शासन-वाक्य धर्मोमे पारस्परिक अपेक्षाका प्रति
पादन नही करता वह सब धर्मोसे शून्य होता है। ८३ ८५ वीरके शासनसे यथेष्ट अथवा भरपेट द्वेष रखनेवाला
भी यदि समदृष्टि हुआ उपपत्तिचतुसे वीरके द्वारा प्रतिपादिन इष्ठतत्त्वका अवलोकन और परीक्षण करता है तो अवश्य ही उसका मानशृङ्ग खण्डित हा जाता है
और वह अभद्र होता हुआ भी सब ओरसे भद्र एव
सम्यग्दृष्टि बन जाता है। . . ८६ वीरके प्रति राग और दूसरोके प्रति द्वेष इस सोत्र
की उत्पत्तिका कोई हेतु नही । यह उन लोगोके उद्देश्यसे, वीरजिनकी गुणकथाके साथ, निर्मित हुआ है जो न्यायअन्यायको पहचानना चाहते है और गुण-दोषको जाननेकी जिनकी इच्छा है। उनके लिए यह ग्रन्थ 'हितान्वेषणके उपायस्वरूप' है।
८४ ८७ शक्तिके अनुरूप स्तुत वीरजिनेन्द्रसे अपने प्रतिनिधि
रहित मार्गमे और भी अधिक भक्तिको चरितार्थ करनेकी प्रार्थना अथवा भावनाके साथ ग्रन्थकी समाप्ति ।