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युक्त्यनुशासन
होता, क्योकि उन द्रव्यादिको के साथ उसकी वृत्ति मानी
नहीं गई ।
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७० यदि सामान्यकी द्रव्यादि वस्तुके साथ वृत्ति मानी भी जाय तो वह वृत्ति भी न तो कृत्स्न ( निरश ) विकल्परूप मानकर बनती है और न अशविकल्परूप | ७१ जो एक अनन्त व्यक्तियोके समाश्रयरूप है उस एक ( सत्ता महा सामान्य) के ग्राहक प्रमाणका अभाव है । ७२ नाना सत्पदार्थो का एक आत्मा ही जिसका समाश्रय है एसा सामान्य यदि ( सामान्यवादियोके द्वारा ) मना जाय और उसे ही प्रमाणका विषय बतलाया जाय तो ऐसी मान्यतावाले सामान्यवादियोसे यह प्रश्न होता है कि उनका वह सामान्य अपने व्यक्तियोसे अन्य है या अनन्य ? दोनो ही उत्तरोमे दोषापत्ति । ७३ यदि सामान्यको अवस्तु ही इष्ट किया जाय और उसे विकल्पोसे शून्य माना जाय तो उस अवस्तुभूत सामान्यके अप्रमेय होनेपर प्रमाणकी प्रवृत्ति कहा होती है । . उसकी कोई व्यवस्था नही बन सकती । ७४ यदि साध्यको व्यावृत्तिहीन अन्वयसे सिद्ध माना जाय तो वह सिद्ध नहीं होता । यदि अन्वयहीन व्यावृत्ति से साध्य जो सामान्य उसको सिद्ध माना जाय तो वह भी नही बनता । ७६
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७५ यदि अन्वय और व्यावृत्ति दोनोसे हीन जो अद्वितयरूप हेतु है उससे सन्मात्रका प्रतिभासन होनेसे सत्ताद्वैतरूप सामान्यकी सिद्धि होती है, ऐसा कहा जाय तो यह कहना भी ठीक नही है ।
७६ यदि द्वयको संवित्तिमात्र के रूप में मानकर असाधनव्यावृत्तिसे साधनको और असाध्य - व्यावृत्तिसे साध्यको
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