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युक्त्यनुशासन
हैं और ये सब विकल्प 'स्यात्' शब्दके द्वारा नेतृत्वको प्राप्त है ।
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५६ 'स्यात्' शब्द भी नयोके आदेश से गौण और मुख्य-स्वभावोके द्वारा कल्पित किये हुए एकान्तोको लिये रहता है अन्यथा नही, क्योकि वह यथोपाधि - विशेषणानुसार - विशेषका - धर्मान्तरक' - द्योतक होता है ।
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५७ तत्व तो अनेकान्तात्मक है, अनेकान्त भी अशेषरूपको लिये हुए अनेकान्तरूप है और वह दो प्रकार से व्यवस्थित है - एक द्रव्यरूप भवार्थवान् होनेसे और दूसरे पर्यायरूप व्यवहारवान् होनेसे ।
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५८ सर्वथा द्रव्यकी तथा सर्वथा पर्यायकी कोई व्यवस्था नही बनती और न सर्वथा पृथग्भूत (परस्परनिरपेक्ष ) द्रव्य-पर्यायकी पुगपत् ही कोई व्यवस्था बनती है।
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५६ यदि सर्वथा द्वयात्मक एक तत्त्व माना जाय तो यह सर्वथा द्वयात्मकता एकत्वके साथ विरुद्ध पड़ती है ।
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६० वीरजिनके शासनमे ये धर्मी (द्रव्य) और धर्म ( पर्याय ) दोनो सर्वथारूपसे भिन्न, अभिन्न तथा भिन्नाभिन्न माने गये है और इसलिये (सर्वथा) विरुद्ध नही है । ६१ प्रत्यक्ष और आगमसे अविरोधरूप जो अर्थका अर्थ से प्ररूपण है उसे 'युक्त्यनुशासन' कहते हैं, वही वीरशासन मान्य है ।
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६२ अर्थका रूप प्रतिक्षण स्थिति, उदय ( उत्पाद) और व्ययरूप तत्त्वव्यवस्थाको लिये हुए है, क्योकि वह सत्रूप है ६४ ६३ वीर - शासन मे जो वस्तु एकरूप है वह अनेकरूपताका और जो अनेकरूप है वह एकरूपताका त्याग नहीं करती, तभी वस्तुरूपसे व्यवस्थित होती है, अन्यथा नही ।