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युक्त्यनुशासन
वालोके यहां स्वर्गापवर्गादिककी प्राप्ति के लिये किया गया यम-नियमादिरूप सारा श्रम व्यर्थ है ।
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४१ चार्वाको सिद्धान्तका प्रदर्शन और उनकी प्रवृत्ति पर भारी खेदकी अभिव्यक्ति ।
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४२ जब चैतन्यको उत्पत्ति तथा अभिव्यक्तिका हेतु अविशिष्ट देखा जाता है तब चार्वाको के प्राणी- प्राणीके प्रति कोई विशेषता नहीं बन सकती । विशेषताकी सिद्धि स्वभावसे माननेमे दोषापत्ति ।
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४३ ' जगतकी स्वभावसे स्वछन्दवृत्ति है, इस लिये हिसादिक महापापोमे भी कोई दोष नही है' ऐसी घोषणा करके जो लोग 'दीक्षासममुक्तिमान' बने हुए है वे विभ्रममे
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है । हुए ४४ प्रवृत्तिरक्त और शम-तुष्टि - रिक्तोके द्वारा हिंसाको जो अभ्युदयका अङ्ग मान लिया गया है वह बहुत बड़ा अज्ञानभाव है ।
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४५ जीवात्मा के लिये दुखके निमित्तभूत जो सिरकी बलि चढ़ाना आदिरूप कृत्य है उनके द्वारा देवोकी अराधना करके वे ही लोग सिद्ध बनते हैं जो सिद्धिके लिये आत्मदोष को दूर करनेकी अपेक्षा नहीं रखते सुखाभिगृद्ध है और जिनके वीरजिन ऋषि नही है । ४६ जो विविध विशेष हैं वे सब सामान्यनिष्ठ है । वर्णसमूरूप पद विशेषान्तरका पक्षपाती होता है और वह एक विशेषको मुख्यरूप से तो दूसरेको गौणरूप से प्राप्त कराता है । साथ ही, विशेशान्तरोके अन्तर्गत उसकी वृत्ति होनेसे दूसरे ( जात्यात्मक ) विशेषको सामान्यरूपमे भी प्राप्त कराता है ।
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