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विषय-सूची
३० सर्वथा शून्यवादी बौद्धोका विचित्र तथा असंगत
कथन और उसका कदर्थन । ३१ सर्वथा सामान्य-विशेष-भावसे रहित जो तत्त्व है वह
संपूर्ण अभिलापो तथा अर्थ-विकल्पोसे शून्य होने के
कारण आकाश-कुसुमके समान अवस्तु है। ३१ ३२ शून्य-स्वभावको अभावरूप सत्स्वभाव-तत्त्व मानकर
बन्ध-मोक्षकी उपायसे गति बतलाने आदिमे दोषापत्तिवैसा तत्त्व बनता ही नहीं।
३२ ३३ जो वाच्य यथार्थ होता है वह दूषणरूप नही होता। ३२ ३४ अनेकान्त-युक्तिसे द्वेष रखने वालोकी इस मान्यतापर
कि 'संपूर्ण तत्त्व अवाच्य है' उपेयतत्त्वकी तरह उपाय
तत्त्व भी सर्वथा अवाच्य हो जाता है। ३४ ३५ सर्वथा अवाच्यकी मान्यता होनेपर 'तत्त्व अवाच्य ही है। ऐसा कहना भी प्रतिज्ञाके विरुद्ध है, क्योकि इस
अवाच्य' पदमे ही वाच्यका भाव है, इत्यादि दोष। ३४ ३६ सत्याऽसत्यरूप वचन-व्यवस्था स्याद्वादके विना नहीं बन
सकती। ३७ विषयका अल्प-भूरि-भेद होनेपर असत्य भेदवान होता __ है-आत्मभेदसे नही इत्यादि तत्व-विवेचन। ३८ तत्त्व न तो सन्मात्र है और न असन्मात्र, तब कैसा
है ? उसका प्रतिपादन। .. .. ३७ ३६ प्रत्यक्षके निर्विकल्पक होनेसे प्रत्यक्ष-द्वारा निर्देशको प्राप्त
होनेवाला तत्त्व असिद्ध है, निर्विकल्पक प्रत्यक्ष भी असिद्ध है, उसका लक्षणार्थ भी नही बनता। . ३८ । पदार्थके अपरिणामी रूपसे अवस्थित रहनेपर कर्ता
और कार्य दोनो नही बनते, अतः अनेकान्तसे द्वेष रखने