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युक्तयनुशासन तौरसे ) कथन करनेके लिये समर्थ नहीं हैं-बढा-चढा कर कहनेकी तो बात ही दूर है। अत. वह स्तुति तो हमसे बन नहीं सकती, तब हम छद्मस्थजन ( कोई भी उपमान न देखते हुए ) किस तरहसे आपकी स्तुति करके स्तोता बने, यह कुछ समझमे नहीं आता।"
तथापि वैय्यात्यमुपेत्य •भक्त्या स्तोताऽस्मि ते शक्त्यनुरूपवाक्यः । इष्टे प्रमेयेऽपि यथास्वशक्ति
किन्नोत्सहन्ते पुरुषाः क्रियाभिः ॥३॥ ( यद्यपि हम छद्मस्थजन आपके छोटे-से-छोटे गुणका भी पूरा वर्णन करनेके लिये समर्थ नहीं हैं ) तो भी मैं भक्तिके वश धृष्टता धारण करके शक्तिके अनुरूप वाक्योंको लिये हुए आपका स्तोता बना हूँआपकी स्तुति करनेमे प्रवृत्त हुआ हूँ। किसी वस्तु के इष्ट होनेपर क्या पुरुषार्थीजन अपनी शक्तिके अनुसार क्रियाओ-प्रयत्नो-द्वारा उसकी प्राप्तिके लिये उत्साहित एव प्रवृत्त नहीं होते ?--होते ही है। तदनुसार ही मेरी यह प्रवृत्ति है-मुझे आपकी स्तुति इष्ट है।'
त्वं शुद्धि-शक्त्योरुदयस्य काष्ठां तुला-व्यतीतां जिन ! शान्तिरूपाम् । अवापिथ ब्रह्म-पथस्य नेता
महानितीयत् प्रतिवक्तुमीशाः ॥४॥ 'हे वीरजिन आप ( अपनी साधनाद्वारा) शुद्धि और शक्तिके उदय-उत्कर्षकी उस काष्ठाको-परमावस्था अथवा चरमसीमाको-प्राप्त हुए है जो उपमा-रहित है और शान्ति-सुख-स्वरूप है-श्रापमे ज्ञानावरण और दर्शनावरणरूप कर्ममलके क्षयसे अनुपमेय निर्मल ज्ञान-दर्शनका तथा अन्तरायकर्मके अभावसे अनन्तवीर्यका आविर्भाव हुआ है, और यह