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युक्त्यनुशासन ये सब घटनाएँ बडी ही हृदयद्रावक है, उनके प्रदर्शन और विवेचनका इस संक्षिप्त परिचयमे अवसर नहीं है और इसलिये उन्हे समन्तभद्रका मुनिजीवन और आपत्काल' नामक उस निबन्धसे जानना चाहिये जो 'स्वामी समन्तभद्र' इतिहासमे ४२ पृष्ठो पर इन पक्तियोके लेखक-द्वारा लिखा गया है।
समन्तभद्रकी सफलताका दूसरा समुच्चय उल्लख बेलूरतालुकेके कनड़ी शिलालेख नं० १७ (E.C V) मे पाया जाता है, जो रामानुजाचार्य-मन्दिरके अहातेके अन्दर सौम्यनायकी मन्दिरकी छतके एक पत्थरपर उत्कीर्ण है और जिसमे उसके उत्कीर्ण होनेका समय शक संवत् १०५६ दिया है। इस शिलालेखमे ऐसा उल्लेख पाया जाता है कि श्रतकेवलियो तथा और भी कुछ आचार्यों के बाद समन्तभद्र स्वामी श्रीवर्धमान महावीरस्वामीके तीर्थकीजैनमार्गकी-सहस्रगुणी वृद्धि करते हुए उदयको प्राप्त हुए है
"श्रीवर्द्धमानस्वामिगलु तीर्थदोलु केवलिगलु ऋद्धिप्राप्तरु श्रुतकेव लिगलु पलरु सिद्धसाध्यर् तत् '(ती) स्थ्यम सहस्रगुणं माडि समन्तभद्रस्वामिगलु सन्दर।"
वीरजिनेन्द्रके तीर्थकी अपने कलियुगी समयमे हजारगुणी वृद्धि करनेमे समर्थ होना यह कोई साधाण बात नही है । इससे समन्तभद्रकी असाधारण सफलता और उसके लिये उनकी अद्वितीय योग्यता, भारी विद्वत्ता एवं बेजोड क्षमताका पता चलता है। साथ ही, उनका महान व्यक्तित्व मूर्तिमान होकर सामने आजाता है। यही वजह है कि अकलकदेव-जैसे महान् प्रभावक आचार्यने 'तीर्थ प्राभावि काले कलौ' जैसे शब्दो-द्वारा, कलिकालमे समन्तभद्रकी इस तीर्थ-प्रभावनाका उल्लेख बड़े