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समन्तभद्र - परिचय
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हुए कहते है कि - 'हे राजन् । मै इस समुद्र - वलया पृथ्वी पर 'आज्ञासिद्ध' हू – जो आदेश दूँ वही होता है । और अधिक क्या कहा जाय मै 'सिद्ध सारस्वत' हूँ – सरस्वती मुझे सिद्ध है । इस सरस्वतीकी सिद्धि अथवा वचनसिद्धिमं ही समन्तभद्रकी उस सफलताका सारा रहस्य सनिहित है जो स्थान स्थान पर वादघोषणाएँ करने पर उन्हे प्राप्त हुई थी और जिसका कुछ विवेचन ऊपर किया जा चुका है।
समन्तभद्र की वह सरस्वती ( वाग्देवी ) जिनवाणी माता थी, जिसकी अनेकान्तदृष्टि-द्वारा अनन्य - आराधना करके उन्होने अपनी वाणी मे वह अतिशय प्राप्त किया था जिसके आगे सभी नतमस्तक होते थे और जो आज भी सहृदय - विद्वानोको उनकी आकर्षित किये हुए है ।
समन्तभद्र, श्रद्धा और गुणज्ञता दोनोको साथमं लिये हुए, बहुत बड़े अद्भक्त थे, अर्हद्गुणोकी प्रतिपादक सुन्दर सुन्दर स्तुतिया रचनकी ओर उनकी बडी रुचि थी और उन्होने स्तुतिविद्यामे 'सुस्तुत्यां व्यसन' वाक्यके द्वारा अपनेको वैसी स्तुतिया रचनेका व्यसन बतलाया है। उनके उपलब्ध ग्रन्थोंमे अधिकांश ग्रन्थ स्तोत्रोके ही रूपको लिये हुए है और उनसे उनकी अद्वितीय अति प्रकट होती है । 'स्तुतिविद्या' को छोडकर स्वयम्भूस्तोत्र, देवागम और युक्त्यनुशासन ये तीन तो आपके खास स्तुतिग्रन्थ हैं। इनमे जिस स्तोत्र - प्रणालीसे तत्त्वज्ञान भरा गया है और कठिन से कठिन तात्विक विवेचनोको योग्य स्थान दिया गया है वह समन्तभद्र से पहलेके ग्रन्थोमे प्रायः नही पाई जाती । समन्तभद्रने अपने स्तुतिग्रन्थोके द्वारा स्तुतिविद्याका खास तौर से उद्धार, सस्कार और विकास किया है, और इसी लिये वे 'स्तुतिकार'